Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ वह वाष्प हिम और तुषार के रूप में बदल गया / चन्द्राभ नामक कुलकर ने मानवों को आश्वस्त करते हुएं कहा कि सूर्य की किरणे ही इस हिम की भौषध हैं।७३ हिमवाष्प अन्त में बादलों के रूप में परिणत होकर बरसने लगा। भोगभूमि के मानवों ने प्रथम बार वर्षा देखी। वर्षा से ही कल-कल, छल-छल करते नदीनाले प्रवाहित होने लगे। यह भोगभूमि और कर्मभूमि के सन्धिकाल की बात है। इन महान् प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रवाह प्राकृतिक पर्यावरण में रहने वाले जीवों पर आत्यंतिक रूप से हुआ। इन प्रवाहों के फलस्वरूप बाह्य रहन-सहन में भी अन्तर पाया। तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में लिखा है कि सातवें कुलकर तक माता-पिता अपनी संतान का मुख-दर्शन किये बिना ही मृत्यु को वरण कर लेते थे।७४ किन्तु आठवें कुलकर के समय शिशु-युग्म के जन्म लेने के पश्चात् उनके माता-पिता की मृत्यु नहीं हुई। वे सन्तति का मुख देखना मृत्यु का वरण मानते थे। प्राठवें कुलकर ने बताया कि यह तम्हारी ही सन्तान है। भयभीत होने की आवश्यकता नहीं. सन्तान का पोर उसके बाद जब भी मृत्यु प्राये, हर्ष से उसे स्वीकार करो। लोग बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने कुलकर का अभिवादन किया। यशस्वी नामक कुलकर ने शिशुओं के नामकरण की प्रथा प्रारम्भ की और प्रभिचन्द्र नामक दसर्वे कुलकर ने बालकों के मनोरंजनार्थ खेल-खिलौनों का आविष्कार किया। 5 तेरहवें कुलकर ने जरायु को पृथक् करने का उपदेश दिया और कहा कि जन्मजात शिशु का जरायु हटा दो जिससे शिशु को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं होगा। चौदहवें कुलकर ते सन्तान की नाभि-नाल को पृथक करने का सन्देश दिया। इस प्रकार इन कुलकरों ने समय-समय पर मानवों को योग्य मार्गदर्शन देकर उनके जीवन को व्यवस्थित किया। प्रस्तुत आगम में तो कुलकरों के नाम और उनके द्वारा की गई दण्डनीति, हकारनीति, मकारनीति और धिक्कारनीति का ही निरूपण है। उपर्युक्त जो विवरण हमने दिया है, वह दिगम्बरपरम्परा के तिलोयपण्णत्ति, जिनसेन रचित महापुराण तथा हरिवंशपुराण प्रभृति ग्रन्थों में आया है। . स्थानांगसूत्र की वृत्ति में प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि कुल की व्यवस्था का सञ्चालन करने वाला जो प्रकृष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति होता था, वह कुलकर कहलाता था। आचार्य जिनसेन ने कुलकर की परिभाषा करते हुए लिखा है कि प्रजा के जीवन-उपायों के ज्ञाता मनु और प्रार्य मनुष्यों को कुल की तरह एक रहने का जिन्होंने उपदेश दिया; वे कुलकर कहलाये। युग की प्रादि में होने से वे युगादि पुरुष भी कहलाये। तृतीय पारे के एक पल्योपम का माठवा भाग जब अवशेष रहता है, उस समय भरतक्षेत्र में कुलकर पैदा होते हैं। पउमचरियं,७८ हरिवंशपुराण और सिद्धान्तसंग्रह० में चौदह कुलकरों के नाम मिलते हैं१. सुमति 2. प्रतिश्रुति 3. सीमङ्कर 4. सीमन्धर 5. क्षेमंकर 6. क्षेमंधर 7. विमलवाहन 8. चक्षुष्मान् --तिलोयपणत्ति 4/375-376 73. तिलोयपण्णत्ति 4 / 475-481 74, गब्भादो जुगलेसुं णिक्कतेसु मरंति तत्कालं / / 75. तिलोयपण्णत्ति, 4/465-473 76. स्थानांगवृत्ति, 767 / 51861 77. महापुराण, आदिपुराण, 6211212 78. पउमचरियं, 3 / 50-55 79. हरिवंशपुराण, सर्ग 7, श्लोक 124-170 80. सिद्धान्तसंग्रह, पृष्ठ 18 [2] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org