Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ मानव तीन दिन में एक बार प्रहार करता था और वह प्राहार उन्हें उन वक्षों से ही प्राप्त होता था। मानव वृक्षों के नीचे निवास करता था। वे घटादार और छायादार वक्ष भव्य भवन के सदृश ही प्रतीत होते थे। न तो उस युग में प्रसि थी, न मसि और न ही कृषि थी। मानव पादचारी था, स्वेच्छा से इधर-उधर परिभ्रमण कर प्राकृतिक सौन्दर्य-सुषमा के अपार प्रानन्द को पाकर पालादित था। उस युग के मानवों की आयु तीन पल्योपम की थी। जीवन की सांध्यवेला में छह माह अवशेष रहने पर एक पुत्र भौर पुत्री समुत्पन्न होते थे। उनपचास दिन वे उसको सार-सम्भाल करते और अन्त में छींक और उबासी / जम्हाई के साथ आयु पूर्ण करते। इसी तरह से द्वितीय आरक और तृतीय प्रारक के दो भागों तक भोगभूमि---अकर्म भूमि काल कहलाता है। क्योंकि इन कालखण्डों में समुत्पन्न होने वाले मानव प्रादि प्राणियों का जीवन भोगप्रधान रहता है। केवल प्रकृतिप्रदत्त पदार्थों का उपभोग करना ही इनका लक्ष्य होता है। कषाय मन्द होने से उनके जीवन में संक्लेश नहीं होता। भोमभूमि काल को प्राधुनिक शब्दावली में कहा जाय तो वह 'स्टेट ऑफ नेचर' अर्थात् प्राकृतिक दशा के नाम से पुकारा जायेगा। भोगभूमि के लोग समस्त संस्कारों से शून्य होने पर भी स्वाभाविक रूप से ही सुसंस्कृत होते हैं। घर-द्वार, ग्राम-नगर, राज्य और परिवार नहीं होता और न उनके द्वारा निर्मित नियम ही होते हैं। प्रकृति ही उनकी नियामक होती है। छह ऋतुओं का चक्र भी उस समय नहीं होता / केवल एक ऋतु ही होती है / उस युग के मानवों का वर्ण स्वर्ण सदृश होता है। अन्य रंग वाले मानवों का पूर्ण अभाव होता है / प्रथम प्रारक से द्वितीय प्रारक में पूर्वापेक्षया वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि प्राकृतिक गुणों में शनैः शनैः हीनता आती चली जाती है। द्वितीय प्रारक में मानव की आयु तीन पल्योपम से कम होती-होती दो पल्योपम की हो जाती है। उसी तरह से तृतीय पारे में भी ह्रास होता चला जाता है। धीरे-धीरे यह ह्रासोन्मुख अवस्था अधिक प्रबल हो जाती है, तब मानव के जीवन में अशान्ति का प्रादुर्भाव होता है / आवश्यकताएं बढ़ती हैं। उन प्रावश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से पूर्णतया नहीं हो पा युगान्तरकारी प्राकृतिक एवं जैविक परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन से अनभिज्ञ मानव भयभीत बन जाता है। उन मानवों को पथ प्रदर्शित करने के लिये ऐसे व्यक्ति प्राते हैं जो जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'कुलकर' को अभिधा से अभिहित किये जाते हैं और वैदिकपरम्परा में वे 'मनु' की संज्ञा से पुकारे गये हैं। अवसर्पिणी और उत्सपिणी शब्द का प्रयोग जैसा जनसाहित्य में हुआ है वैसा ही प्रयोग विष्णपुराण में भी हआ है। वहाँ लिखा है-हे द्विज! जम्बूद्वीपस्थ अन्य सात क्षेत्रों में भारतवर्ष के समान न काल की अवसर्पिणी अवस्था है और न उत्सर्पिणी अवस्था ही है। इसी तरह विष्णुपुराण, अग्निपुराण और मार्कण्डेयपुराण में कर्मभूमि और भोगभूमि का उल्लेख हुअा है। विष्णुपुराण में लिखा है कि समुद्र के उत्तर और हिमाद्रि के दक्षिण में भारतवर्ष है। इसका विस्तार नौ हजार योजन विस्तृत है। यह स्वर्ग और मोक्ष जाने वाले पुरुषों की कर्मभूमि है। इसी स्थान से मानव स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है। यहीं से नरक और तिर्यञ्च गति में भी जाते हैं। भारतभूमि के अतिरिक्त अन्य भूमियाँ भोगभूमि हैं।६ प्रग्निपुराण में भारतवर्ष को कर्मभूमि कहा है। मार्कण्डेयपुराण में भी भोगभूमि और कर्मभूमि की चर्चा है।६८ 64. अपसपिणी न तेषां वैन चोत्सापिणी द्विज! / मत्वेवाऽस्ति युगावस्था तेषु स्थानेषु सप्तसु // -विष्णुपुराण द्वि. प्र. अ. 4, श्लोक 13 65. विष्णुपुराण, द्वितीयांश, तृतीय अध्याय, श्लोक 1 से 5 66. अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने ! / यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः / / 67. अग्निपुराण, अध्याय 118, श्लोक 2 69, मार्कण्डेयपुराण, अध्याय 55, श्लोक 20-21 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org