Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मानन्द अमणोपासक
मानन्द गाथााति ने स्नान किया मोर सभा में जाने पोग्य वस्त्राभूषण धारण किए । यह लौकिक-व्यवहार है। स्तान का धर्म के साप कोई सम्बन्ध नहीं है।
'सकोरंटमल्लयामेणं खणं' का अर्थ-'कोरंट वृक्ष के फूलों की माला को छत्र पर धारण किया' समझना चाहिए । कई जगह 'कोरंट वृक्ष के फूलों का छत्र धारण किया'-अर्थ भी देखा जाता है, पर शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-कोरंट यक्ष की मासामों के समूह सहित छत्र धारण किया। 'स' शब्द पहा सहित का द्योतक है ।
_ 'आमाहिणं पयाहिणं' का अर्थ कोई 'भगवान् के चारों ओर प्रदक्षिणा' करते हैं, पर स्थानकवासी भाम्नाय 'हाथ जोड़ कर अपने बंजलिपुट से सिरमा आवर्तन' इस अर्थ को ठीक मानती है । वैसे भी भगवान् की परिक्रमा का कोई कारण ध्यान में नहीं भाता है।
'मन्मं मोणं' का अर्थ अनेक स्थानों पर बीचोबीच, 'मध्यभाग से देखा जाता है. पर वह उचित नहीं है । 'म मज्झणं' का वहश्रुत-सम्मत अर्ष तो है-'राजमार्ग से गमन' । गली-चों से जाना मज्झं मझणं नहीं है।'
तप णं समणे भगवं महावीर आणपमानावरस सोस य महह महालियाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, राया य गए ॥ सू. ३॥
अर्थ- प्रगवान् महावीर स्वामी ने भानंद पायापति तथा विशाल परिषद् को धर्मकथा कही । परिषद और राजा धर्म सुन कर चले गए।
विवेचन- धर्मदेशना का विस्तृत वर्णम उववाई सूत्र में है। धर्म सुनने का सब से बड़ा लाभ मर्वपिरति अंगीकार करना है । संसार से विमुख कर मोक्षामिमल करने वाले व्यायान ही 'धर्मकथा' है । श्रावक-वत वही स्वीकार करता है जो संयम धारण न कर सके 1 जिसकी जिनवाणी पर श्रद्धा प्रतीति एवं कचि नहीं है, वह न तो संयमी-जीवन के योग्य है, न धावक-यतों के।
नए णं से आणंदे गाहावा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म मोच्चा णिसम्म हट्टतुह जाय एवं वयासी-"सदहामि पं भंते ! णिग्गयं पावपणं, पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पाषयण, रोगमि गं भंते ! णिग्गंथं पाषषणं एवमेयं भने ! नहमेयं भंते, अषितहमेयं भंते ! इच्छियौयं भंते ! पहिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपहिच्थ्यिमेयं मंते ! से जहेयं तुन्भे वयह त्ति कटु । जहा णं देवाणु