Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अग्निमित्रा श्रमणोपासिका हुई
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिपा पहाया जाप पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहायाभरणलं कियसरीरा चेरिया पक्कचालपरिकिण्णा धम्मियं जाणापपरं दुरूहह, दुरुहिता पोलासपुरं गयरं मझमज्झेणं णिग्गच्छा, णिग्गच्छिता जेणेष सहस्संबोइजाजत मोलगट महानारे तेणेष उवागणा, उगा. गचित्ता त्तिकखुत्तो जाव बंबई णमंसा, बंदित्ता णमंसित्ता पच्चासण्णे णाइ दूरे जाप पंजलिउड़ा ठिाया चेष पम् षासह । मए णं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्तार तीसे य जाव धम्मं कहेह।
___ अर्थ- अग्निमित्रा ने स्नान कर समा में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र धारण किए और आभूषणों मे देह-विभूषित को। तत्पश्चात् वासियों के समूह से परिवत होकर धामिक एष पर बैठ कर पोलासपुर से निकली तथा सहखात्रवन उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप गई। तीन बार वंदना-नमस्कार कर, न अधिक दूर न अधिक निकट हाप जोड़ कर पर्युपासना करने लगी। भगवान ने धर्म-देशना फरमाई ।
तपणं सा अग्गिमित्ता भारिया समणरस भगवओ महावीररस अंलिए रम्भ सोचा णिसम्म हहतुहा ममणं भगवं महावीर वंदर णमंसह, दित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-"महहामि णं भंते ! णिग्गंध पाषयणं जाव से जहेयं तुम्मे षयह। जहा णे देवाणुप्पियाणं अतिए पहवे उग्गा भोगा जाच पत्याइया, गो खल अहं कहा संचाएमि देवाणुपिपाणं अंतिए मुण्डे भवित्ता जाव अहंगं देवाणरिपयाणं अतिए पंचाणुध्वयं मत्ससिक्खायाइयं दुबालमविहं गिनिधम्म परिवजिस्मामि ।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा परिपंधं करेह ।"
अर्थ-धर्म सुन कर अग्निमित्रा भार्या ने भगवान् से निवेदन किया-"हे भगवन् ! में निफ्रन्य-प्रवचम पर श्रद्धा करती हूँ, यावत जैसा आपने फरमाया सा ही हं. यया है। जिस प्रकार बहुत से राजा राजेश्वर आपके समीप संपम धारण करते हैं, सो मेरी सामय नहीं है। मैं आपश्री से पांच अणवत एवं सात शिक्षा-दस रूप भावक धर्म स्वीकार करूंगी।" भगवान ने फरमाया--" हे वेवानप्रिया । जैसे सुख हो, वंसा करो, धर्म-कार्य में प्रभाव मत करो।"