Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 116
________________ देवोपसर्ग १०६ ___ अर्थ-उस देव में दूसरीमार-तीसरी बार उपरोक्त वचन कहे तब सकरालपुत्र भमणोपासक को यह सुन कर विधार हुआ कि निश्चय ही यह कोई अनार्य-कुष्ट पुरुष है, जिसने पहले मेरे ज्येष्ठ पुत्र को फिर मंझले पुत्र को और फिर छोटे पुत्र को मेरे सामने भारा, नौ-नौ मांस-व्रण किए, सपा उन्हें मेरे शरीर पर छिड़क कर वेदना उत्पन्न को। अब यह मेरी धर्मसहायिका अग्निमित्रा भार्या को मार कर उपके नौ मांस-मण कर माम पर छिड़कना चाहता है। अतः मेरे लिए उचित है कि इसे पका लं।' ऐसा सोच कर ज्योंही पकड़ना बाहा, वेव उड़ गया, और खंमा हो हाम आया । सफडालपुत्र ने कोलाहल किया, अग्निमित्रा मार्या ने उन्हें वस्तु-स्थिति समझाई, सपा प्रायश्चित्त वे कर शुद्ध किया। वशेष सारा वर्णन चूलणीमिता ने समान जाना चाहिए । निगम कि संलेखना संधारा कर के सौधर्म नामक प्रथम देवलोक के अरुणभूत विमान में उत्पन्न हुए। चार पल्पोपम को स्थिति का उपभोग कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बनेंगे। ॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥

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