Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री उपासकदशांग ८
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- साया हुआ चाहार न तो ऊंचा जाता है और न नीचा जाता है, पर न पचता है, किन्तु मामा में पालसी हो कर पड़ा रहता है, उसे 'लक' रोग कहते हैं । विसूचिका भी कहते है ।
भगवान् गौतमस्वामी को भेजते है
लेणं काले णं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिमा पढिगया । " गोयमाह" समणे भगवं महावीरे एवं वयासी - " एवं खलु गोयमा ! इहेव रायगियरे ममं अंतेवासी महासयए णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममारणं तियसंलेहणाए सियसरीरे भक्तपाणपडियाइ विलए कालं अणवखमाणे बिहरइ | नए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहाबरणी मत्ता जाव विकदेमाणी विक्रमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयर तेणेव उपागच्छ उबागच्छत्ता मोहुम्माय जाव एवं बयासी-सहेब जाब दोपि तच्चपि एवं वयासी ।
अर्थ-उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह पधारे, परिषद धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। भगवान् ने मीतमस्वामी से फरमाया-' --" हे गोतम 1 इस राजगृह नगर में मेरा अंतेवासी महाशतक श्रमणोपासक अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना को आराधना कर रहा है। आहार पानी की इच्छा न करते हुए तथा मृत्यु की आकांक्षा नहीं रखते हुए पौषधशाला में वह शरीर और कषायों को क्षोण कर रहा हूं। उसके पास एक दिन रेवती गाथापत्नी आई थी तथा मोह-उन्मादजनक वचन दो-तीन बार कहे थे।
तर णं से महासयए समणोबास रेवहर गाहावाणीए दोपि तपि एवं कुत्ते समाणे आमुरते ४ ओ िपजह, पउंजित्ता ओहिणा आभोपर, आभाइसा रेवई गाहावर्णि एवं वयासी- जाव उववज्जिहिमि । णो खलु कप्पर गोयमा : समणोवासगस्स अपच्छिम जाय लूसियसरीरस्स भत्तपाणपडियार पिस्स परीसंतेहिं तच्चाहं नहि मन्भूपहिं अणिहेडिं अहं अपि अमणुष्णेहिं अमणामेह वागरणेोहं बागरित्तए । तं गच्छ णं देवाणुपिया ! तुमं महासययं समणां वासयं एवं बयासी - "नो खस्तु देवाणु पिया ! कृप्पा समणोपासगस्स अपच्छिम जाब भत