Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तुंगिका के श्रमणोपासक
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और उत्सम थे। धन एवं सोना-चाही से भी वे परिपूर्ण थे। वे लेम-देन एवं ब्याज पर धन लगाने का व्यवसाय मी बहत करते थे। उनके यहां बहुत लोग भोजन करते थे। इसलिए सूठन में भी भोजन बहत रह जाता था। उसके वास-दासी, गाय, मैंस, मेड़-बकरियां भी बहुत थे। समर्थ थे। उन्हें कोई भी विचलित नहीं कर सकता था।
श्रमणोपासको की आत्मिक सम्पत्ति
"अमिगयजीवाजीषा, उपलद्ध पुण्ण पाषा आसप-संवर-णिज्जर-किरि. पाहिगरण-पंध-मोक्ख-सला । असहेजदेवाऽसर-णाग-सुषण्ण-जक्ख रक्खसकिग्णर-किंपुरुष-गरुल-गंधव महोरगाईएहिं णिग्गंधाओ पारयणाओ अतिक्कणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कस्त्रिया णिवितिगिच्छा, लट्ठा, गहि. पट्टा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विणिच्चियट्ठा, अट्टिमिंजपेमाणुरागरस्ता । "अपमाउसो ! णिग्गंथे पाषयणे अड्ढे, अयं परमठे, सेसे अणडे । उसियफलिहा, असं गुय दुवारा, चियत्ततेउरघरपवेसा । बहूहिं सीलब्धय-गुण वेरमण पच्चक्खाणपोसहोववाहिं चाउसहमुविठ्ठ-पुण्णमासिणीसु परिपुण्णं पोमहं सम्मं अणुपाले. मापा, समणे जिग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं भमण पाण खाइम-माहमेणं पस्य-पडि. ग्गाह फंघल पायपुंजणेणं पीढ फलग-सज्जा-संथारएणं ओसह-सज्जेणं पडिलामेमाणा अहापडिग्गहिएहि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।"
। सूत्रकार ने उपरोक्त शब्दों में उन आवशं घमणोपासक महानुभावों को मध्य आत्म-द्धि का अबछा परिचय दिया है।
अभिगम जीवाऽजीवा-उन श्रमणोपासकों ने जीव और अजीव तत्स्व का स्वरूप मामने के साथ अभिगत-आस्मा में स्थापित कर लिया था ।
उबलद्धपुण्ण-पावा-पुण्य और पाप तत्व का अर्थ और माशय प्राप्त कर लिया या। पुण्य और पाप के निमित्त, भाव, क्रिया और परिणाम समझ कर हृदयंगम कर चुके थे।
भासव-संवर-णिज्जर.... मोक्खकसला-आम्रव-संवर-निर्जरा किया अधिकरण