Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१२६
मी उपासकादमांग सूप
बंध और मोक्ष के स्वरूप, साधन, आचरण, बंधन और मुक्ति का स्वरूप वे समझे हुए थे। बाहन सिाल में नो, पण मोषज्ञ थे। आत्म-परिणत ज्ञान के वे धारक थे।
वे तत्त्वज्ञ, तत्त्वाभ्यासी, तत्त्वानुमयो, तत्त्वसंवेदक एवं तत्त्वदृष्टा विद्वान थे।
आस्मतस्व, आत्मघाव, आस्मा का स्वरूप, आत्मा की वैमाविक और स्वामाविक दशा का ज्ञान, आत्मा को अनात्म द्रव्य से संबद्ध करने वाले भावों और आचरणों एवं मुक्त होने के उपाय, मुक्तारमा का स्वरूप आदि के थे तलस्पी जाता यं । हेय-ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने में निपुण थे।
असहेज्ज देवासुर.......वे श्रमणोपासक सुख-दुःख को अपने कर्मोदय का परिणाम मान कर शांतिपूर्वक सहन करते थे। परन्तु किसी देव-दानव को सहायता की इच्छा भी महीं करते थे। वे अपने धर्म में इतने बृढ़ थे कि उन्हें देव-दानवादि भी चलित नहीं कर सकते थे।
णिग्गंथे पावणे हिस्सफिया-निफ्रन्थ-प्रवचन-जिनेश्वर भगवंत के बताये हुए सिद्धांत में बढ़ श्रद्धावान थे। उनके हृदय में सिद्धांत के प्रति किसी प्रकार की शंका नहीं थी। वे जिनधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म को आकांक्षा नहीं रखते थे। क्योंकि निग्रंन्य प्रवचन में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। धर्माराधन के फल में उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं था।
लद्धहा गहियद्या........उन्होंने तत्त्वों का अर्थ प्राप्त कर लिया था। जिज्ञासा उत्पन्न होने पर भगवान अथवा सर्वश्रुत या बहुश्रुत गीतार्थ मे पूछ कर निश्चय किया था। सिद्धांत के अर्थ को मलि प्रकार समाप्त कर धारण कर लिया था। उन्होंने तत्वों का रहस्यज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अद्विमिंज पेमाणुरागरता-उन एक मवावतारी श्रमणोपासकों की धर्मश्रद्धा इतनी बलवती थी कि उनके आत्म-प्रदेशों में धर्म-प्रेम माढ़ से गाढ़तर और गाड़तम हो गया था। उसके प्रभाव से उनकी हड्डियां और मज्जा भी उस प्रशस्त राग से रंग गई थी। भवाभिनन्दियों और पुद्गल राग-रत्त जीवों के तो अप्रशस्त राग से मात्मा और अस्थिया । मैली-कुचेली बनी रहती है। जब यह मेल कम होता तब आत्मा में धर्मप्रेम जागता है।