Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 127
________________ श्री उपासकदशोग मूत्र वासयं एवं बयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीर पवमाइक्रखर भासद पण्णवेह परवेइ-'णों खलु कापह देवाणुप्पिया ! समणांवामगरस अपच्छिम जाव वागरित्तए ! तुमे पं देवाणप्पिया ! रेवई गाहावी संतहिं जाव बागरिया। तं णं तुम देवाणुरिपया ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाप परिषज्जाहि ।" अर्थ-भगवान गौतम स्वामी को पधारते हुए देख कर महाशतक धमणोपासक का चित्त प्रीति से मर गया, हरय हर्षित हुआ यावत् उसने प्रसन्न हो कर भगवान गौतम स्वामी को वंदना-नमस्कार किया। तम गोतम स्वामी ने फरमाया-"हे महाशसक । धमण भगवान महावीर स्वामी इस प्रकार आख्यान करते है, भाषण करते हैं, विशेष कपन करते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि संलेखना-संवारा किए बाधक को सत्य होते हुए भी अप्रिय वचन बोलना नहीं कल्पता है। तुमने रेवती गापापली को सस्य किन्तु अप्रिय बच्चन कहे । अतः हे देवानुप्रिय । उस बोष-स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण कर प्रायश्चित्त कर के शुद्धिकरण करो।" नारस महासगए समणाबासए भगपओ गोयमस्स "महति" एयम विएणं पहिसणंह, परिसुणित्ता तरस ठाणस्म आलोएड जाब अहारिहं च पायत्तिं पडिवजह । नए णं से भगवं गोयमे महामायगस्स समणोवास यस्म अंति. ग्राआ पडिणिकावमा, परिणिक्खमिसा गयगि यो मज्झंमज्झणं णिग्गा , णिग्गचित्ता जेणेष समणे मग महार तणेव उवागार, उाछित्ता समर्ण भगवं महाबीर अंदा णमंसह. बंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं मवसा अप्पाणं भायमाणे विहरत | तरणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कया गयगिहामओ पराआ परिणिस्त्रमा परिणिक्खमित्ता पहिया जणषयविहारं बिहरह। __अर्थ-तम महाशतक ने भगवान गौतम स्वामी द्वारा कहे हुए भगवान महावीर स्वामी के आदेश को 'तहत्त'-आपका कथन यथार्थ है-कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया और गौतमस्वामी के पास उस बोष-स्थान की आलोचना की, योग्य प्रायश्चित्त प्रहण किया। तब गीतमस्वामी अपने स्थान को पधारे, तथा भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए रहने लगे। तस्पश्चात् किसी दिन भगवान् ने बाहर जनपद में बिहार किया।

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