Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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. श्री उपासकदर्शाग सूत्र-१
याइक्खियस्स काल अणवफखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेह संपेहित्ता करलं जाय अपच्छिम मारणतिय जाय कालं अणवकखमाणे विहरइ ।
अर्थ--श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के साथ-साथ उग्र उदार और विपुल मात्रा में, उस्कृष्ट तप-कर्म करने के कारण आनंव श्रमणोपासक शरीर से बहत कृश रक्त-मांस से रहित एवं शुष्क होगए । हड्डी और त्वचा मिल जाने से अस्थि-पिंजर के समान हो गए । एकबार रात्रि के चौथे प्रहर में धर्म-जागरणा करते हुए उन्हें विचार आया कि 'जब तक मेरे शरीर में उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तथा मेरे धर्माचार्य-धर्मोपदेशक श्रमण-मगवान् महावीर स्वामी-गंधहस्ती के समान विचर रहे है, तबतक सूर्योवय होने पर मेरे लिए मारणांतिकी संलेखना कर लेना उचित है।' ऐसा विचार कर दूसरे दिन संथारा कर लिया, तथा मृत्यु की चाहना न करते हुए धर्माराधना करने लगे।
आनन्द को अवधिज्ञान
ताणं तस्स आणंवरस समणोवासगस्स अण्णया कयाइ सुभेणं अजावसाणेणं सुभेणं परिणामेण लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं सदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे, पुरथिमेणं लषणसमुहे पंच जोयणसइयं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्षिणेणं पच्चस्थिमेण य, उत्तरेणं जाव चुल्लाहिमवनं वास. हरपवर्ष जाणइ पासद, उई जाव सोहम्म कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभार पुढवाए लोलुयञ्चुर्य गरयं चउरासीदवाससहस्मद्वियं आणइ पासड् ॥
___ अर्थ-अन्यथा किसी दिन शुम अध्यवसायों से, शुम मन-परिणामों से, लेण्याओं की विशुद्धि होने से तया अवधिज्ञानावरणीय कर्म के अयोपशम होने से (रूपी पदार्थों को विषय करने वाला) अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । उससे वे पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में पाँचसो-पांचसो पोजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर-दिशा में घुलहिमवंत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्व-दिशा में पहला देवलोक तथा अधो-दिशा में प्रथम नरक में चौरासी हजार की स्थिति वाले लोलयच्चय नरकावास तक का क्षेत्र जानने देखने लगे।