Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 66
________________ अमोपासक कामदेव-देवोपसर्ग बेदना हुई, परन्तु कामदेव ने यह वेदना भी समभाव से सहन को और धर्मध्यान से लेशमात्र भी नहीं हिगे। देव उपसर्ग--सर्प रूप तए णं से देवे हत्यिसवे कामदेवं समणोपासयं जाहे णो संचाएइ जाव सणिय सणियं पच्चोमक्का, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिमिक्खमा, पडिणिक्खमित्ता दिन्यं हस्थिरूवं विपमहइ, विप्पजहित्ता एग महं दिव्य सप्परूवं विउरुवा-उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाकाय मसीमूसाकालगणपणविसरोसपुण्णं अंजणा पुंजणिगरप्पगासं रत्तच्छ लोहियलोयणं जमलमुगलचंचलजीहं धरणीयलवेणिभूयं उक्कफुकुडिलजटिलफक्कमवियहफडाडोवफरणदच्छ ले.हागरधम्ममाणधमधमयोस अणागलियतिन्यचंयरोस सप्परूयं विउघड, विश्वित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेबे समणोवासए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिता कामदेवं समणोवासयं एवं बयासी । अयं-हाथी के रूप से जन देव कामदेव को धर्म से न डिगा सका, तो शनःशनः पौषधशाला से बाहर निकला और हरती का रूप त्याग कर एक महान दिव्य सर्प रूप की विकुर्वणा की । वह सर्प उन विष बाला, अल्प समय में ही शरीर में व्याप्त हो जाय ऐसे चए (सैद्र) विष वाला, शीघ्र ही मृत्यु का हेतु होने से घोर विला, बड़े आकार वाला, स्याही एवं मूस (धातु पलाने का पात्र) के समान काला, वृष्टि पड़ते हो प्राणो भस्म हो जाय ऐसा दृष्टिविष, जिसकी आँखें रोष से मरी पी, काजल के ढेर के समान प्रमा वाला, जिसकी आंखें लालिमायक्त कोध वाली घी, दोनों जीमें चंचल तथा लपलपाती पी, अत्यन्त सम्मा तथा कृष्णवर्ण वाला होने से धरती को वेणी (काली चोटी) के समान दृष्टिगत होता या, अन्य का परामव करने में उत्कट, चाह एवं स्वमाय से अत्यंत कुटिल, जटिल, निष्टर, फण का घटाटोप करने में वक्ष,लहार की धौंकनी के समान घमघमायमान धान्च करता हुआ, फरकार करता हुआ, जिसका तीन को रोका आना संभव नहीं, ऐसा भयंकर सर्प रूप बना कर

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