Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री उपासकदशांग सून-२
कामना आकांक्षा वाले, तीव्र इच्छा युक्त पिपासु, हे वेवानुप्रिय 1 तुझे धारण किए शीलव्रत, अनुवत, गुणवत तथा पौषधोपचास आदि भावक व्रतों से विचलित होना, क्षुभित होना, देश रूप से खण्डना करना, भंग करना, उपेक्षापूर्वक त्याग देना, पूर्णकर से परित्याग कर देना नहीं करुपता है । परन्तु यदि आज तू इन व्रतों से विचलित नहीं होगा, यावत् परित्याग नहीं करेगा तो इस नीलकमल जैसी तीक्ष्ण तलवार से तेरे लण्ड-खण्ड कर लूंगा । जिससे तू आर्त-ध्यान युक्त होकर अकाल-मृत्यु को प्राप्त होगा ।"
कामदेव श्रमणोपासक उस पिशाच रूपधारी देव के ये वचन सुन कर भयभीत नहीं हुए, त्रास के प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, क्षुमित नहीं हुए, शुभ परिणामों से चलित नहीं हुए और कायिक खेष्टाओं से भी संधान्त नहीं हुए, किन्तु शान्तिपूर्वक धमंध्यान करते रहे।
तर णं से देवे पिसायरूवे कामदेवे समणोवासयं अभीयं जाव धम्मज्झागोबरायं बिहरमाणं पास पासित्ता ढोच्वंपि तच्चपि कामदेव एवं वयासी- "इं भो कामदेवा ! समणोवासया अपत्थिय पत्थिया अड् णं तुमं अज्ज जाब दवरोविज्जसि," तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं दोपि तच्चपि एवं वृत्ते समागे अभीए जाव धम्मज्झाणोचगाए विहरइ । तर पणं से देवे पिसापरूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाप विहरमाणं पासह पासित्ता आसुरते तिबलियं भिउडि पिडाले साहइड कामदेवं समणोवासयं णीलुप्पल जाव अमिण खंडाखंडि करेइ । तर चां से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव दुरहियासं वेपणं सम्म सहह जात्र अहिया सेह ॥ सू. २० ॥
अर्थ- जब उस विशाच रूपधारी देव ने कामदेव श्रमणोपासक को निर्भीक यावत् धमंध्यान ध्याते हुए देखा, तो दूसरी बार तीसरी बार सो उपरोक्त वचन कहे, कि "हे अप्रार्थित प्रार्थी । पायस् तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा" तब भी जब वे तनिक भी भयमीत नहीं हुए, तो उसके ललाट में तीन सल बन गए। यह अत्यंत कुपित हुआ और अपने नीलकमल के समान उस तीक्ष्ण धार वाले बढ़ग से शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए। इससे