Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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...........................श्री उपासकदांग सूत्र-...
क्या सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है ?
तए णं से आणंदे समर्णावासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्घाणेणं पाएम चंदह णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता एवं षयासी-"अत्थि णं भंते ! गिहिणो गिहिमलावसंतस्स ओहिणणे समुप्पज्जह?" "हंताअस्थि।" "अइण भंते ! गिहिणो जाव समुप्पज्जा, पर्व खलु मंते ! मम वि गिहिणो मिहिमज्झायसंतस्स ओहिणाणे समुप्पपणे-पुरस्थिमेणं लवणसमुद्दे पंच जोयण-सयाई जाव लोलुपन्यं णरयं आणामि पासामि ।" तए णं से भगवं गोयमे आणंदं ममणोधासयं एवं षयासी"अस्थि णं आणंदा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, णो चेत्र णं एमहालए, न णं तुमं आणंदा ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाच तवोकम्मं पढिवज्जाहि ।
अर्थ-गौतम स्वामी के निकट पधारने पर आनन्द धमणोपासक ने उनके चरणों में मस्तक लगा कर तीन बार बंदना-नमस्कार कर कहा-"हे भगवन् ! क्या गृहस्य अव. स्था में रहे हुए गृहस्य को अवधिज्ञान हो सकता है ?" गौतमस्वामी ने उत्तर दिया-"हाँ आनन्द ! हो सकता है।" तब मानन्द ने कहा-“हे भगवन 1 मुझे भी अवधिनान हुआ है, जिससे में यहाँ रहा हुआ पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण-समुद्र के पांचसो-पांचसी योजन तक का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल-हिमवंत पर्वत तल का क्षेत्र, अर्ध्व-दिशा में प्रथम देवलोक एवं नोची-विशा में लोलुपच्चय नरकाधास तक का क्षेत्र बेल रहा हूं । तब गौतम स्वामी ने फरमाया-"हे आनंद 1 गृहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, परंतु इतना विशाल नहीं हो सकता । अतः तुम आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करो।"
तए पं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एवं वयासी-"अस्थि णभंत ! जिणवपणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाय पद्धि. ज्जिज्जइ ?" "णो इणठे समझे।" "जड़ ण भंते जिणवयणे संताण जाच भावाणं णो आलोहज्जइ जाव तवोकम्मं णो पशिवज्जिज्जइ त ण भंत ! तुभ चेय पयस्म ठाणस आलोपह जाव पशिवजह।"