Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आनन्दजी ने संथारा किया
पर इन बातों के विषय में फहना भी बज्य है। जैसे कि सर्वषा अनुमोदन-रहित साघु को एक मात्र मोक्षमार्ग के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक मादि किसी भी विषय में एक शाब्द का भी उच्चारण करना निषिद्ध है। इसका उत्कृष्ट कालमान दस मास का है।
(११) श्रमणभूत प्रतिमा--इसमें उस्सरे से मस्तका मुण्ठित होता है, शक्ति हो तो लोच भी कर सकता है । इसमें अनुमोदन का सर्वथा त्याग होता है । साघु-साध्वी तो जनेसरों के यहाँ भी गोचरी जाते हैं, पर श्रमणभूत प्रतिमा वाला अपनी जाति वालों के यहाँ से ही प्राहार-पानी लेता है. षयोंकि 'ये मेरे ज्ञाति वाले है '-इस स्नेह-सम्बन्ध का मभाव नहीं हना । इस पर भी वह पाहार. पानी लेने में साधु के समान विधेकी व बियक्षण होता है। घर में जाने से पूर्व दाल बनी हो, चावल बाद में बने, तो वह दाल ले सकता है, चावल नहीं । इसी प्रकार को पूर्व निष्पन्न हो, वही वस्तु लेता है। इसमें वह तीन करण तीन योग से पाप का त्याग करता है। किसी के घर भिक्षापं जाने पर-- 'मुझ सपासक प्रतिमा संपन्न को पाहार वो'-ऐसा काहना कल्पता है। किसी के पूछने पर वह कह सकता है कि मैं 'प्रतिमाप्रतिपन घमणोपासक हूँ ।' इस प्रतिमा का उत्कृष्ट कालमान ग्यारह मास है।
शंका- क्या प्रथम प्रतिमा के नियम म्यारहवीं प्रतिमा में भी मावश्यक है ? समाधान-जी हां, पहले के सारे नियम अगली प्रतिमा के लिए भी अनिवार्य है।
श्री समवायांग सूत्र के ग्यारहवें समवाय में ग्यारह प्रतिमानों के नाम बताए गए हैं। श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र की छठी दशा में उपासक प्रतिमाओं का स्वरूप विस्तार से बताया गया है।
आनन्दजी ने संथारा किया
तए णं से आणंदे समणोपासए इमेणं एपारवेणं उरालेणं विउलेणं पयसणं पग्गहियेणं सवोकम्मेणं मुक्के जाव किसे धमणिसंतए जाए। नए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अपणया कयाइ पुरवरत्ता जाव धम्मजागरमाणस्स अयं अज्झस्थिर चिंतिए पत्थिर मणोगए संकप्पे समुपज्जत्या-एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसंतए जाए, तं अस्थि ता मे उहाणे कम्मे पले पीरिए परिसक्कारपरक्कमें महाधिइसंवेगे, ने जाव ता मे अस्थि उहाणे सद्वाघिसंवेगे जाप य मे धम्मागरिए धम्मोषएसप समणे भगवं महाधीरे जिणे सुहन्धी विहरह, तार ता में से कल्लं जाप जलंते अपच्छिममारणंतिपसलेहणायूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडि.