Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री उपासकदांग सूत्र-१
तयाणंतरं च णं धूलगस्स मुमावायरमणरस पंच अश्यारा जाणियम्वा ण समायरियचा, तं जहा-सहसाअभक्खागे रहमामखागे सदारमंतभेए मोसायरसे कृडलेहकरणे।
अर्थ- सवन्तर श्रावक के दूसरे प्रत स्थूल-मषावाद-विरमण' के पांच अतिचार श्रावक को जानने योग्य हैं परंतु आचरण करने योग्य नहीं है । यया--१ सहसास्यास्पान, २ रहस्याभ्याख्यान, ३ स्वार-मंत्र-भेव, ४ मृषोपवेश और ५ कूट-लेख करण ।
विवेचन- १ सहसाभ्याख्यान-बिना विचारे किसी पर झुठा कलंक लगाना, २ रहमाभ्या. स्यान--एकान्त में बातचीत करने वाले को दोष देना, अथवा किसी को गुप्त बात प्रकट करना । ३ स्वदारमंत्रभेद--अपनी स्त्री की (प्रथवा किसी विश्वस्त जन द्वारा कही गई) गुप्त बात प्रकट करना, ४ मृषोपदेश -प्रहार, रोगनिवारण मावि में सहायक मंत्र, औषधि, विष मादि के प्रयोग का उपदेश जीव-विराधना का कारण होने से इस प्रकार के वचन-प्रयोग को 'मषोपदेश' कहते हैं। यदि कोई यह सोचे कि 'मैं झु तो बं.ला ही नहीं' किन्तु वह हिसाकारी सलाह है । इसके परिहार के लिए मियोपडेश को शानियों ने झूठ माना है। यह साक्षात् (परलोक पुनजन्म मादि विषयों में) मिथ्या उपदेश का विषय नहीं है, यदि वैसा होता तो मनाघार समझा जाता । ५ फूटलेख करण-- 'मेरे तो झूठ बोलने का त्याग है, लिखने का नहीं, ऐसा समझ कर कोई (असद्भूत--झुठा) लेखन कारे, जालो हस्ताक्षर करना, जाली दस्तावेज तैयार करना आदि तब तक मतिचार है, जब तक प्रमाद या अदिवेक हो, विचारपूर्वक जानते हुए लिखना सी मनाचार है।
मयाणंतरं च ण थूलगरस दिण्णादाणवेरमणस्म पंच अइयारा जाणियव्वा ण समापरियधा, नं जहा--तेगाह हे, सक्करप्पओगे विरुदरज्जाइकम्मे कूडनुलकूडमाणे तप्पविरुवगववहारे ॥
अर्थ-तदन्तर धावक के तीसरे व्रत स्थल अदत्तादान विरमण के पांच अतिचार जानने योग्य है, आचरने योग्य नहीं हैं-स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्धराज्यातिकम, कूटतुलाकूट मान, तस्प्रतिरूपक व्यवहार ।
विवेचन-१ नाहृत --- चोर द्वारा अपहृत वस्तु लेना । २ तस्कर प्रयोग --चोरी करने का परामर्श देना ३ विरुवराज्यातिकम - राज्याज्ञा के विरुद्ध सोमा उल्लंघन, निषिद्ध वस्तुओं का व्यापार, मुंगी आदि कर का उल्लंघन । ४ कूटनुलाकरमान -खोटे तोल माप रम्नना, कम देना, ज्यादा लेना आदि । ५ तप्प्रतिरूपक व्यवहार--प्रच्छा वस्तु के समान दिखने वालो बुरी वस्नु देना, सौदे या नमुने में