Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री उपासनदशांग मूत्र-१
एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं विउलं तहेच जिमियभुत्तुत्तरागए तं मित्त जाय घिउलेणं असण-पाण-खाइम-माइमेणं चत्ध-गंध-मल्लालंकारेणं सरकारे सम्माणेइ, मक्कारिता सम्माणित्ता तसंच मित्त झाच पुरको अष्टपुस माहात्र, सदावित्ता एवं बयासी-एवं खलु पुत्ता ! अहं वाणियगामे यहणं राईमर जाय चिनिय जाव विहरितग, तं सेयं खलु मम इणि तुम मयस्स कुडुम्बस्स मेादें पमाणं आहारं आलंपणं उवेत्ता जाध विहरित्तए। तए णं जेट्टपुत्ते आणेवरस समणो. वासगस्स तत्ति एयमह विणणं पडिमुणेइ ।
___ अर्थ-इस प्रकार विचार कर के प्रातःकाल होने पर विपुल अशन-पान-खादिमस्वादिम बनाया और मित्रों तमा स्वजन-सम्बन्धियों को आमंत्रित किया। आहार, पानी, वस्त्र, गन्ध, माला, अलंकार आदि से उन्हें सस्कार-सम्मान देकर ज्येष्ठ पुत्र से कहा-'हे पुत्र में बाणिज्य ग्राम नगर में बहुत-से राजेश्वर आदि लोगों द्वारा माननीय यावत् विचार-विमर्श योग्य हूं : अब यह श्रेयस्कर है कि लुम यह मार सम्मालो । अपने कुटुम्ब एवं दूसरों के लिए मेढ़ी भूत प्रमाणभूत एवं सहायक बनो।' ज्येष्ठ पुत्र ने विनयपूर्वक स्वीकार किया।
तपणं से आणंद ममणोबासए तस्सेव मित्त जात्र पुरओ जेहात कुटुंये व्येह ठवित्ता एवं बयासी-" मा णं देवाशुप्पिया ! तुम्भे अज्जप्पभिई केइ मम बहुसु कज्जेसु जाव आपुच्छउ वा पछि पुच्छउ वा ममं अट्ठाण असणं वा ४ उवक्खडेड वा उवकरेउ वा। तए णं से आपदे समणोचासग जट्टएत्तं मित्तणाई आपुच्छर आपुत्तिा मयाओ गिहाओ पडिणिक्खमह पहिणिक्वामित्ता वाणियगाम मझ मज्झेण णिग्गछह, णिग्गच्छत्ता जेणेव कोल्लाए सणिवेसे जेणेव णायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छद उवागचिमत्ता पोसहमालं पमज्जड़, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलहेइ, पडिलेंहिता दन्भसंधारयं संघरइ, धम्मसंधारयं दुरूइ दुरूवत्ता पोसहमालाग पोसहिए दन्मसंधागेवगण समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उपसंपज्जिता णं विहरइ ।१०/
अर्थ-तदन्तर आनन्द श्रमणोपासक ने सभी के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्म का मखिया नियक्त किया और कहा--" हे देशप्रियो ! आज से आप लोग मुम-से किसी