Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
आनन्दजी का अभिप्रह
१
अर्थ - आनन्द गाथापति अब आनन्द श्रमणोपासक हो गए, वे जीव- अजीव आदि लय तत्वों के ज्ञाता यावत् साधु-साध्वियों को प्रतिक्रामित करते हुए काल यापन करने लगे । शिवानन्वा भी श्रमणोपासका बन गई ।
रूप की पहल भार्गव रामगोवासगस्स उच्चाषएहिं सीलन्वयगुणवेरमणपाणपोहोचवा सेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोइस संचच्छराई चइकताई, पण्णरसमस्स संयच्छरस्त अंतरावहमाणस्स अपणया कपाइ गुरुवरत्तावर त्तकाल - समयसि धम्मजागरियं जागरभाणस्स इमेयारूबे अस्थिर चितिए पत्थिए मणोग संकपे समुप्पज्जित्था – एवं खलु अहं वाणियगामे णयरे पट्टणं राइसर जाब सयस्सवि य णं कुटुम्बस्स जान आधारे, तं एएणं विक्खेवेणं अहं णो संचारमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरितः । तं सेयं खलु ममं कल्लं जावजलते विउलं असणं जहा पूरणो जाव जेट्टपुतं कुत्रे ठत्ता, तं मित्तं जाव जेट्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता कोल्लाए साण्णवेसे णायकुलंसि पोसहसा पढिलेहिता समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं धम्मपण्णतिं उवसंपत्तिाणं बिहरिस्तए ।
अर्थ -- आनन्द श्रमणोपासक को शीलव्रत, गुणद्रन, विरमणव्रत तथा पौषधोपवास आदि उत्तम व्रतों का निर्दोष रीति से पालन करते चौदह वर्ष बीत गए । पन्द्रहवें वर्ष के किसी दिन रात्रि के चौथे प्रहर में धर्मजागरण करते हुए उन्हें विचार आया कि "मैं बहुत-से राजा, ईश्वर, आदि लोगों तथा अपने कुटुम्ब के लिए आधारभूत आदि हूँ। वे अनेक विषयों में मुझ से परामर्श करते हैं। अतः इससे भगवान् द्वारा बताई गई धर्म-साधना में विक्षेप होता है। अतः मेरे लिए यह उचित होगा कि सूर्योदय होने पर पूरण गाथापति की मति विपुल आहार पानी बना कर मित्र जाति जनों को आमंत्रित कर उन्हें जिमाऊं, तथा उनकी साक्षी से बड़े पुत्र को मेरे स्थान नियुक्त करूं, तथा उसे पूछ कर कोल्लाक सनिवेश में जो ज्ञातकुल की पौषशाला है, वहाँ रह कर भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई गई धर्म-आराधना कर 1