Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Author(s): Ghisulal Pitaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 40
________________ . ...मामन्व का अभिग्रह । २७ अर्थ-व्रतों के अतिधार सुमने के बाद मानन्दलो ने पांच अणुवत तथा सात शिक्षावत रूप बारह प्रकार का प्रावधर्म स्वीकार किया तथा वंदना-नमस्कार कर कहने लगे--"हे भगवन् | आज से मुझे अन्यतीथियों के साधुओं को, अन्यतीपियों के प्रवत्तंकों एवं अन्यतीथि प्रगृहीत जैन साधुओं को वंदन-नमस्कार करना नहीं कल्पता है। उनसे बोलाए बिना आलाप-संलाप करना नहीं कल्पता है। उन्हें पूज्य मार कर माहार-पानी बहराना नहीं कल्पता है। परन्तु राजा को आज़ा से, संघ-समूह के दबाव से, बलपान के मय से, वेव के भय से, माता-पिता आदि ज्येष्ठजनों की आज्ञा से और अटवी में भटक जाने पर अथवा आजीविका के कारण कठिन परिस्थिति को पार करने के लिए, किन्हीं मिथ्यावृष्टि देवादि को वनादि करनी पड़े, तो आगार (छुट) है। विवेचन-'अप्णस्थियागि' का अर्थ है-अभ्यतीथिक साधु । यद्यपि इसमें सामान्य गहस्थ का भी समावेश हो सकता है, परन्तु सामान्यतया उनका सम्पर्क मिथ्यात्व का कारण नहीं बनता, उत्तरा. प. १० गाथा. १८ में भी 'कुतिस्यो' शब्द से अन्यदर्शनी साघुपों का ही ग्रह्ण हुमा है। 'अण्णास्पियदेवमाणि' का अर्थ है- प्रत्यतीपियों के देव । वे पुरुष जो अमुक धर्म के प्रवर्तक संस्थापक प्रणया माचार्य रूप हो । जमे आनन्दजी के युग में-गौतमबुद्ध बौद्धधर्म के प्रवर्तक थे । मखलिपुत्र गोशालक भी आजीवक मत के देव रूप थे। दिव्यावदान 'नामकरोड ग्रंथ में ऐसे छ: व्यक्तियों का नामोल्लेख है१ पूरण काश्यप २ मललिपुत्र गौशालक ३ संजय वैरट्ठीपुत्र ४ अजित पेश कम्बल ५ कुकुद कात्यायन प्रोर ६ निग्रंथ ज्ञातपुत्र । "सेन स समयेन रामगृहे नगरे पर पूर्णाद्याः शास्तरोऽसवंज्ञाः सर्वज्ञमानिनः प्रतिवसतिस्य । तद्यथा-पूरणः काश्यपो मरकरी गोशालिपुत्रः संजमी वेरट्टीपुत्री अजित केश कम्बलः कुकुवः कात्यापनो निग्यो मातपुत्रः।" (F) सारी पुरतमा नं. ६६७ (उदागप मूत्र) पन्ने २४ एक पृह में १३ पंक्तियां, एक पंक्ति में ४२ अक्षर, सहमदाचार आनन गम्छ थी गुगापार्श्वनाथ की गति, पुस्तक में सम्बत नहीं। बोधे पत्र में नीचे सिखा पाठ'अरिपयपशिगहियाई वा बाया'पत्र में बांई तरफ शुद्ध किया हुआ है-अमाउपियाई वा अमउत्वियदेवपावा' पुस्तक अश्किटर अगुद्ध है । वार में शुद्ध की गई है, लोक संगपा ११२ दी है। (G) मारी पुःतचा नं. ६४६४ ( उपासकदमावृत्ति पंच पाट मह ) पत्र ३३ सोक ... का प्रयाA E.., मश्यक पृष्ठ पर १६ पंक्तियाँ मोर प्रलोक पंक्ति में ३२ असर हैं । पत्र आठ पंक्ति पहली में नोचे निरा पाठ है 'अन्न उस्थियपरिग्गहियाई वा चेहयाई'। यह पुस्तक पडिमात्रा में लिखी गई है और अधिक प्राचीन सनम पाली । पुस्तक पर सम्बत नहीं है।

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