Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आभिजात्यवर्ग का स्तवन या गुणकीर्तन हुआ हो। इसमें किसान, मजदूर, चरवाहे, व्यापारी, स्वामी, सेवक, राजा, मन्त्री, अधिकारी आदि समाज के सभी छोटे-बड़े वर्गों का यथार्थ चित्रण हुया है। भाषा, शैली जैसा ऊपर सूचित किया गया है, जैन आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में हैं, जिस पर महाराष्ट्री का काफी प्रभाव है। इसलिए डॉ. हर्मन जैकोबी ने तो जैन आगमों की भाषा को जैन महाराष्ट्री की संज्ञा भी दे दी थी पर उसे मान्यता प्राप्त नहीं हुई। उपासकदशा में व्यवहृत अर्द्धमागधी में महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का काफी प्रयोग देखा जाता है। जैसे उदाहरणार्थ इसमें 'सावग' और 'सावय' ये दोनों प्रकार के रूप आये हैं / भाषा सरल, प्राञ्जल और प्रवाहमय है। वर्णन में सजीवता है / कई वर्णन तो बड़े ही मार्मिक और अन्तःस्पर्शी हैं। उदाहरणार्थ दूसरे अध्ययन में श्रमणोपासक कामदेव को विचलित करने के लिए उपसर्गकारी देव का वर्णन है / देव के पिशाच-रूप का जो वर्णन वहाँ हुआ है; वह पाश्चर्य, भय और जुगुप्सा–तीनों का सजीव चित्र उपस्थित करता है। वहाँ उल्लेख है, उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे, वह गिरगिटों और चूहों की माला पहने था, उसने अपनी देह पर दुपट्टे की तरह सांपों को लपेट रखा था, उसका शरीर पाँच रंगों के बहविध केशों से ढंका था / कितनी विचित्र कल्पना यह है / और भी विस्मयकर अनेक विशेषण वहाँ हैं / __ जैसी कि आगमों की शैली है, एक ही बात कई बार पुनरावृत्त होती रहती है। जैसे किसी ने किसी से कुछ सुना, यदि उसे अन्यत्र इसे' कहना हो तो वह सारी की सारी बात दुहरायेगा। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर ऐसा हुआ है। ___ अनावश्यक अति विस्तार से बचने के लिए आगमों में सर्वसामान्य वर्णनों के लिए 'जाव' 'द्वारा संकेत कर दिया जाता है. जिसके अनुसार अन्य प्रागमों से वह वर्णन ले लिया जाता है / शताब्दियों तक कण्ठान-विधि से आगमों को सुरक्षित रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत हुआ / सामान्यत: राजा, श्रेष्ठी, सार्थवाह, नगर, उद्यान, चैत्य, सरोवर आदि का वर्णन प्राय: एक जैसा होता है। अतः इनके लिए वर्णन का एक विशेष स्वरूप (Standard) मान लिया गया, जिसे साधारणतया सभी राजाओं, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों, नगरों, उद्यानों, चैत्यों, सरोवरों आदि के लिए उपयोग में लिया जाता रहा / प्रस्तुत आगम में भी ऐसा ही हुआ है / हिन्दी अनुवाद सहित आगमप्रकाशन भारत में कतिपय जैन आगमों का मूल तथा सटीक रूप में समय-समय पर प्रकाशन होता रहा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद के साथ बत्तीसों आगमों का सबसे पहला प्रकाशन अब से लगभग छह दशक पूर्व दक्षिण हैदराबाद में हुआ / इनका संपादन तथा अनुवाद लब्धप्रतिष्ठ आगम-विद्वान् समादरणीय मुनि श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने किया। तब के समय और स्थिति को देखते हुए निश्चय ही यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य था / तबसे पूर्व हिन्दी भाषी जनों को आगम पढ़ने का अवसर ही प्राप्त नहीं था। इन आगमों का सभी जैन सम्प्रदायों के मुनियों और श्रावकों ने उपयोग किया। श्रुत-सेवा का वास्तव में यह एक श्लाघनीय कार्य था / आज वे आगम अप्राप्य (Out of Print) हैं / [ 29] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org