Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [183 रेवती का दुःखमय अन्त 256. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी-रु? णं ममं महासयए समणोवासए होणे णं ममं महासयए समणोवासए, अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नज्जइ णं, अहं केण वि कुमारणं मारिज्जिस्सामि त्ति कट्ट भीया, तत्था, तसिया, उम्विग्गा, संजायभया सणियं 2 पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय-जाव (मण-संकप्पा, चिता-सोग-सागर-संपविट्ठा, करयल-पल्हत्यमुहा, अट्ट-ज्माणोवगया, भूमिगय-दिट्टिया) झियाइ / श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी- श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रुष्ट हो गया है, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बुरा चाहता है, न मालूम मैं किस बुरी मौत से मार डालो जाऊं। यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर, डरती-डरती धीरे-धीरे वहाँ से निकली, घर आई / उसके मन में उदासी छा गई, (वह चिन्ता और शोक के सागर में डूब गई, हथेली पर मुह रखे, पार्तध्यान में खोई हुई, भूमि पर दृष्टि गड़ाए) व्याकुल होकर सोच में पड़ गई / 257. तए णं सा रेवई गाहावइणी अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुपच्चुए नरए चउरासीइ-वास-सहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना / तत्पश्चात रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीड़ित हो गई। व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। गौतम द्वारा भगवान का प्रेरणा-सन्देश 258. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया। उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे। समवसरण हुआ। परिषद् जुड़ी, धर्म-देशना सुन कर लौट गई। 259. गोयमा ! इ समणे भगवं महावीरे एवं बयासी-एवं खलु गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे ममं अंतेवासी महासयए नामं समणोबासए पोसह-सालाए अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणाए रसिय-सरीरे, भत्तपाण-पडियाइविखए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा-गौतम ! यहीं राजगह नगर में मेरा अन्तेवासी-अनुयायी महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, पाहार-पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हा, धर्माराधना में निरत है। 1. देखें सूत्र-संख्या 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org