Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 233
________________ उपसंहार 275. दसह वि पण्णरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिता। दसह वि वीसं वासाई समणोवासय-परियाओ। उपसंहार दसों ही श्रमणोपासकों को पन्द्रहवें वर्ष में पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर धर्म-साधना में निरत होने का विचार हुया / दसों ही ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया। 276. एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते / / आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दसवें अध्ययन का यह अर्थ-भाव प्रज्ञप्त-प्रतिपादित किया / 277. उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुय-खंधो। दस अज्झयणा एक्कसरगा, दससु चेव दिवसेसु उद्दिस्संति / तओ सुय-खंधो समुद्दिस्सइ / अणुण्णविज्जइ दोसु दिवसेसु अंगं तहेव / // उवासगदसाओ समत्ताओ // सातवें अंग उपासकदशा में एक श्रुत-स्कन्ध है / दस अध्ययन हैं। उनमें एक सरीखा स्वरपाठ-शैली है, गद्यात्मक शैली में ये ग्रथित हैं। इसका दस दिनों में उद्देश किया जाता है। तत्पश्चात् दो दिनों में समुद्देश-सूत्र को स्थिर और परिचित करने का उद्देश किया जाता है और अनुज्ञासंमति दी जाती है / इसी प्रकार अंग का सुमुद्देश और अनुमति समझना चाहिए / "उपासकदशा सूत्र समाप्त हुआ" 1. देखें सूत्र-संख्या 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276