________________ 184] [उपासकदशांगसूत्र 260. तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव (लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं) विकडमाणी 2 जेणेव पोसहसाला, जेणेव महासयए, तेणेव उवागया, मोहुम्माय जाव (-जणणाई, सिंगारियाई इथिभावाइं उवदंसेमाणी 2 महासययं समणोवासयं) एवं क्यासी, तहेव जाव'दोच्चंपि, तच्चंपि एवं वयासी। घटना यों हुई–महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई) पोषधशाला में महाशतक के पास आई। (बार-बार मोह तथा उन्माद जनक कामोद्दीपक, कटाक्ष आदि हावभाव प्रदर्शित करती हुई) श्रमणोपासक महाशतक से विषय-सुख सम्बन्धी बचन बोली / उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा / 261. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चंपि एवं बत्ते समाणे आसुरत्ते 4 ओहि पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवई गाहावइणि एवं वयासी-जाव' उववज्जिहिसि, नो खलु कप्पइ, गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-) झूसिय-सरीरस्य, भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सब्भूहि, अणि? हिं, अकतेहिं, अप्पिएहि, अमणुणेहं, अमणामेहि वागरहि वागरित्तए। तं गच्छ णं, देवाणुप्पिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-नो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-असणा-झूसियस्स,) भत्त-पाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव ( तच्चेहि, तहिएहि, सब्भूहि, अणि?हिं, अकतेहिं, अप्पिएहि, अमणुणेहि, अमणामेहि वागरणेहि) वागरित्तए / तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं 4 अणि?हिं 5 वागरणेहि वागरिया। तं गं तुम एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवज्जाहि / अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा-(मौत को चाहने वाली रेवती ! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर, व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई, आयुकाल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मर कर नीचे प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।) गौतम ! सत्य, तत्त्वरूप-यथार्थ या उपचारहित, तथ्य-अतिशयोक्ति या न्यूनोक्तिरहित, सद्भूत--जिनमें कही हुई बात सर्वथा विद्यमान हो, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-जो इष्ट न हों अकान्त-जो सुनने में अकमनीय या असुन्दर हो, अप्रिय-जिन्हें सुनने से मन में अप्रीति हो, अमनोज्ञ-जिन्हें मन न बोलना चाहे, न सुनना चाहे, अमनःप्राप—जिन्हें मन न सोचना चाहे, न स्वीकार करना चाहे-ऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय-धर्मविहित नहीं है। इसलिए देवानुप्रिय ! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक 1. देखें सूत्र-संख्या 254 2. देखें सूत्र-संख्या 255 3. देखें सूत्र-संख्या 84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org