Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव [95 सीहासणंसि चउरासीईए सामाणिय-साहस्सीणं जाव (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्ख-देवसाहस्सीणं) अन्नेसि च बहूणं देवाण य देवीण य मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-एवं खलु देवा ! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसह-सालाए पोसहिए बंभयारी जाव (उम्मुक्क-मणि-सुवण्णे, ववगय-माला-वण्णग-विलेवणे, निक्खित्त-सत्थ-मुसले, एगे, अबीए) दम्भ-संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / नो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव (जखेण वा, रक्खसेण वा, किन्नरेण वा, किपुरिसेण वा, महोरगेण वा) गंधब्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा / तए णं अहं सक्कस्स देविदस्स देव-रण्णो एयमढें असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे इहं हव्वमागए / तं अहो णं, देवाणुप्पिया ! इड्डी, जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए। तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया ! इड्डी जाब (जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्ध, पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं, देवाणुप्पिया ! खमंतु मज्म देवाणुप्पिया ! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाई भुज्जो करणयाए त्ति कटु पाय-वडिए, पंजलि-उडे एयमलैं भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / सर्परूपधारी देव ने जब देखा-श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निम्रन्थ --प्रवचन से विचलित, क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हटकर पोषध-शाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर देव-मायाजनित सर्प-रूप का त्याग किया। वैसा कर उसने उत्तम, दिव्य देव-रूप धारण किया। उस देव के वक्षस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था। (बह अपनी भुजाओं पर कंकण तथा बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाए रखनेवाली प्राभरणात्मक पट्टी, अंगद-भुजबन्ध धारण किए था। उसके मृष्ट -केसर, कस्तुरी आदि से मण्डित-चित्रित कपोलों पर कर्ण-भूषण, कुण्डल शोभित थे / वह विचित्र---विशिष्ट या अनेकविध हस्ताभरण-हाथों के आभूषण धारण किए था / उसके मस्तक पर तरह-तरह की मालाओं से युक्त मुकुट था। वह कल्याणकृत्-मांगलिक, अनुपहत या अखण्डित प्रवर–उत्तम पोशक पहने था। यह मांगलिक तथा उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन-चन्दन, केसर आदि के विलेपन से युक्त था / उसका शरीर देदीप्यमान था। सभी ऋतुओं के फूलों से बनी माला उसके गले से घुटनों तक लटकती थी। उसने दिव्य-देवोचित वर्ण, गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात–दैहिक गठन, संस्थान-दैहिक अवस्थिति, ऋद्धि-विमान, वस्त्र, आभूषण आदि दैविक समृद्धि, द्युति-पाभा अथवा युक्ति-इष्ट परिवारादि योग, प्रभा, कान्ति, अचि-दीप्ति, तेज, लेश्या-प्रात्म-परिणति तदनुरूप भामंडल से दसों दिशाओं को उद्योतित-प्रकाशयुक्त, प्रभासित-प्रभा या शोभा युक्त करते हुए, प्रसादित–प्रसाद या पाह्लाद युक्त, दर्शनीय, अभिरूपमनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेनेवाला, प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला दिव्य देवरूप धारण किया। वैसा कर,) श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org