________________ सातवां अध्ययन : सकडालपूत्र] [155 श्रमणोपासक सकडालपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने ( अत्यन्त प्रसन्न होते हुए, चित्त में आनन्द एवं प्रोति का अनुभव करते हुए, अतीव सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो, हाथ जोड़े, सिर के चारों ओर घुमाए तथा अंजलि बांधे 'स्वामी' यों आदरपूर्ण शब्द से सकडालपुत्र को सम्बोधित--प्रत्युत्तरित करते हुए उनका कथन स्वीकृतिपूर्ण भाव से विनयपूर्वक सुना। सुनकर तेज चलने वाले बैलों द्वारा खींचे जाते उत्तम यान को शीघ्र ही उपस्थित किया। 207. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया पहाया जाव ( कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-) पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई जाव ( मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया) अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा, चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहिता पोलासपुरं नगरं मझमझेणं निग्गच्छह, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडिया-चक्कवाल-परिबुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव ( आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता ) वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे जाय (सुस्सूसमाणा, नमसमाणा अभिमुहे विणएणं) पंजलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासइ। तब सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा की, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु मंगल-विधान किया), शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक, उत्तम) वस्त्र पहने, थोड़े-से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया / दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर पोलासपुर नगर के बीच से गुजरती सहस्राम्रवन उद्यान में आई, धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, दसियों के समूह से घिरी जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे, वहाँ गई, जाकर (तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की), वंदन-नमस्कार किया, भगवान् के न अधिक निकट न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगी। 209. तए गं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जाव' धम्मं कहेइ / श्रमण भगवान् महावीर ने अग्निमित्रा को तथा उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश दिया / 210. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव (पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते !) से जहेयं तुझे वयह / जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा, भोगा जाव (राइण्णा, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, पसत्थारो, मल्लई, लेच्छई, अण्णे य बहवे राईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुबिय-इभ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पवइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव 1. देखें सूत्र-संख्या 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org