________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [163 तत्पश्चात् श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा- देवानुप्रिय ! आप इतने छेक, विचक्षण (दक्ष-चतुर, प्रष्ठ–वाग्मी-वाणी के धनी), निपुण-सूक्ष्मदर्शी, नयवादी-नीतिवक्ता, उपदेशलब्ध-आप्तजनों का उपदेश प्राप्त किए हुए-बहुश्रुत, विज्ञान-प्राप्त-विशेष बोधयुक्त हैं, क्या आप मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ हैं ? गोशालक-नहीं, ऐसा संभव नहीं है / सकडालपुत्र--देवानुप्रिय ! कैसे कह रहे हैं कि आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हैं ? गोशालक—सकडालपुत्र ! जैसे कोई बलवान्, नोरोग, उत्तम लेखक की तरह अंगुलियों की स्थिर पकड़वाला, प्रतिपूर्ण-परिपूर्ण, परिपुष्ट हाथ-पैरवाला, पीठ, पार्श्व, जंघा आदि सुगठित अंगयुक्त उत्तम संहननवाला, अत्यन्त सघन, गोलाकार तथा तालाब की पाल जैसे कन्धोंवाला, लंघन-अतिक्रमण-कूद कर लम्बी दूरी पार करना, प्लवन-ऊँचाई में कूदना प्रादि वेगपूर्वक या शीघ्रता से किए जाने वाले व्यायामों में सक्षम, ईंटों के टुकड़ों से भरे हुए चमड़े के कुपे, मुग्दर आदि द्वारा व्यायाम का अभ्यासी, मौष्टिक-चमड़े की रस्सी में पिरोए हुए मुट्ठी के परिमाण वाले गोलाकार पत्थर के टुकड़े-व्यायाम करते समय इनसे ताडित होने से जिनके अङ्ग चिह्नित हैं—यों व्यायाम द्वारा जिसकी देह सुदृढ तथा सामर्थ्यशाली है, अान्तरिक उत्साह व शक्तियुक्त, ताड़ के दो वृक्षों की तरह सुदृढ एवं दीर्घ भुजाओं वाला, सुयोग्य, दक्ष-शीघ्रकारी, प्राप्तार्थ-कर्म-निष्णात, निपुणशिल्पोपगत-शिल्प या कला की सूक्ष्मता तक पहुँचा हुआ कोई युवा पुरुष एक बड़े बकरे, मेंढे, सूअर, मुर्गे, तोतर, बटेर, लवा, कबूतर, पपीहे, कौए या बाज के पंजे, पैर, खुर, पूछ, पंख, सींग, रोम जहाँ से भी पकड़ लेता है, उसे वहीं निश्चल-गतिशून्य तथा निष्पन्द-हलन-चलन रहित कर देता है, इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर मुझे अनेक प्रकार के तात्त्विक अर्थों, हेतुओं (प्रश्नों, कारणों) तथा विश्लेषणों द्वारा जहाँ-जहाँ पकड़ लेंगे, वहीं-वहीं मुझे निरुत्तर कर देंगे। सकडालपुत्र ! इसीलिए कहता हूँ कि तुम्हारे धर्माचार्य भगवान् महावीर के साथ मैं तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हूँ। गोशालक का कुंभकारापण में आगमन 220. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एवं वयासी–जम्हा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे मम धम्मायरियस्स जाव (धम्मोवएसगस्स, समणस्स भगवओ) महावीरस्स संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सम्भूएहिं भावेहि गुणकित्तणं करेह, तम्हा णं अहं तुब्भे पाडिहारिएणं पीढ जाव (-फलग-सेज्जा.) संथारएणं उवनिमंतेमि, नो चेव णं धम्मोत्ति वा, तवोत्ति वा / तं गच्छह णं तुब्भे मम कुंभारावणेसु पाडिहारियं पीढ-फलग जाव (सेज्जा-संथारयं) ओगिहित्ताणं विहरह। तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने गोशालक मंखलिपुत्र से कहा--देवानुप्रिय ! आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) महावीर का सत्य, यथार्थ, तथ्य तथा सद्भूत भावों से गुणकीर्तन कर रहे हैं, इसलिए मैं आपको प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या) तथा संस्तारक हेतु आमंत्रित करता हूं, धर्म या तप मानकर नहीं। आप मेरे कुंभकारापण-बर्तनों की कर्मशाला में प्रातिहारिक पीठ, फलक, (शय्या तथा संस्तारक) ग्रहण कर निवास करें। 221. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमलैं पडिसुणेइ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org