________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [179 संवच्छरा वइक्कंता / एवं तहेव जेटुं पुत्तं ठवेइ जाव' पोसहसालाए धम्मपण्णति उवसंपज्जिताणं विहरइ / श्रमणोपासक महाशतक को विविध प्रकार के व्रतों, नियमों द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / आनन्द आदि की तरह उसने भी ज्येष्ठ पुत्र को अपनी जगह स्थापित किया-पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तदायित्व बड़े पुत्र को सौंपा तथा स्वयं पोषधशाला में धर्माराधना में निरत रहने लगा। महाशतक को डिगाने हेतु रेवती का कामुक उपक्रम 246. तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता, लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं विकड्डमाणी विकड्डमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई, सिंगारियाई इथिभावाइं उवदंसेमाणी उवदंसेमाणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! महासयया ! समणोवासया ! धम्म-कामया ! पुग्ण-कामया! सग्ग-कामया ! मोक्खकामया! धम्म-कंखिया ! 4, धम्म-पिवासिया 4, किण्णं तुब्भ, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा ? ज णं तुम मए सद्धि उरालाई जाव (माणुस्साई भोगभोगाई) भुजमाणे नो विहरसि? एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय दुपट्टा या ओढना फेंकती हुई, पोषधशाला में जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई / पाकर बार-बार मोह तथा उन्माद जनक, कामोद्दीपक कटाक्ष आदि हाव भाव प्रदर्शित करती हुई श्रमणोपासक महाशतक से बोली-धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष की कामना, इच्छा एवं उत्कंठा रखनेवाले श्रमणोपासक महाशतक ! तुम मेरे साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या पाअोगे-इससे बढ़कर तुम्हें उनसे क्या मिलेगा? 247. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयम8 नो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढाइज्जमाणे, अपरियाणमाणे, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / श्रमणोपासक महाशतक ने अपनी पत्नी रेवती की इस बात को कोई आदर नहीं दिया और न उस पर ध्यान ही दिया / वह मौन भाव से धर्माराधना में लगा रहा / 248. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासीहं भो ! तं चेव भणइ सो वि तहेव जाव (रेवईए गाहावणीए एयमट्ठनो आढाइ, नो परियाणाइ) अणाढाइज्जमाणे अपरियाणमाणे विहरइ। उसकी पत्नी रेवती ने दूसरी बार तीसरी बार फिर वैसा कहा / पर वह उसी प्रकार अपनी पत्नी रेवती के कथन को आदर न देता हुआ, उस पर ध्यान न देता हुअा धर्म-ध्यान में निरत रहा / 1. देखें सूत्र-संख्या 92 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org