Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 220
________________ 180] [उपासकदशांगसूत्र 249. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणी, अपरियाणिज्जमाणी जामेव दिसं पाउन्भूया, तामेव दिसं पडिगया / यों श्रमणोपासक महाशतक द्वारा आदर न दिए जाने पर, ध्यान न दिए जाने पर उसकी पत्नी रेवती, जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की ओर लौट गई। महाशतक की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना 250. तए णं से महासयए समणोवासए पढम उवासग-पडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ पढमं अहासुत्तं जाव एक्कारसवि / श्रमणोपासक महाशतक ने पहली उपासकप्रतिमा स्वीकार की। यों पहली से लेकर क्रमश: ग्यारहवीं तक सभी प्रतिमाओं की शास्त्रोक्त विधि से आराधना की। 251. तए णं से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव' किसे धमणिसंतए जाए / उग्र तपश्चरण से श्रमणोपासक महाशतक के शरीर में इतनी कृशता--क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगीं। आमरण अनशन 252. तए णं तस्स महासययस्य समणोवासयस्य अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्त-काले धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ४-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाए झसिय-सरीरे भत्त-पाण-पडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ / . एक दिन अर्द्ध रात्रि के समय धर्म-जागरण---धर्म स्मरण करते हुए आनन्द की तरह श्रमणोपासक महाशतक के मन में विचार उत्पन्न हुआ—उग्न तपश्चरण द्वारा मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, आदि / आनन्द की तरह चिन्तन करते हुए उसने अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया- अनशन स्वीकार किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ, वह आराधना में लीन हो गया। अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव 253. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव (सुभेणं परिणामेणं, लेसाहि विसुज्झमाणीहि तदावरणिज्जाणं कम्माणं) खओवसमेणं ओहि-णाणे समपन्नेपुरस्थिसेणं लवणसमुद्दे जोयण-साहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जाणइ पासइ, अहे इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चय नरय चउरासीइ-वाससहस्सटिइय जाणइ पासइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक महाशतक को शुभ अध्यवसाय, (शुभ परिणाम अन्तःपरिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण) अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हो 1. देखें सूत्र-संख्या 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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