________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [165 उस देव ने एक बड़ी, नीली तलवार निकाल कर श्रमणोपासक सकडालपुत्र से उसी प्रकार कहा, वैसा ही उपसर्ग किया, जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था। सकडालपुत्र के बड़े, मंझले व छोटे बेटे की हत्या की, उनका मांस व रक्त उस पर छिड़का / केवल यही अन्तर था कि यहां देव ने एक-एक पुत्र के नौ-नौ मांस-खंड किए। 226. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोबासए अभीए जाव' विहरइ / ऐसा होने पर भी श्रमणोपासक सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा / 227. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव' पासित्ता चउत्थं पि सहालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासो-हं भो! सद्दालपुत्ता ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया! जाव न भंजेसि तओ जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्म-सहाइया, धम्म-विइज्जिया, धम्माणुरागरत्ता, समसुह-दुक्ख-सहाइया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणेत्ता तव अग्गओ धाएमि, घाएता नव मंससोल्लए करेमि, करे करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव (वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / उस देब ने जब श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्भीक देखा, तो चौथी बार उसको कहामौत को चाहनेवाले श्रमणोपासक सकडालपुत्र ! यदि तुम अपना व्रत नहीं तोड़ते हो तो तुम्हारी धर्म-सहायिका-धार्मिक कार्यों में सहयोग करनेवाली, धर्मवैद्या-धार्मिक जीवन में शिथिलता या दोष आने पर प्रेरणा द्वारा धार्मिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाली, अथवा धर्मद्वितीया-धर्म की संगिनीसाथिन, धर्मानुरागरक्ता-धर्म के अनुराग में रंगी हुई, समसुखदुःख-सहायिका--तुम्हारे सुख और दुःख में समान रूप से हाथ बंटाने वाली पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आऊंगा, लाकर तुम्हारे आगे उसकी हत्या करूगा, नौ मांस-खंड करूगा, उबलते पानी से भरी कढाही में खोलाऊंगा, खौलाकर उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचं गा, जिससे तुम प्रार्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर (असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे / विवेचन इस सूत्र में अग्निमित्रा का एक विशेषण 'धम्मविइज्जिया' है, जिसका संस्कृतरूप 'धर्मवैद्या' भी है / भारतीय साहित्य का अपनी कोटि का यह अनुपम विशेषण है, सम्भवतः किन्हीं अन्यों द्वारा अप्रयुक्त भी / दैहिक जीवन में जैसे आधि, व्याधि, वेदना, पीडा, रोग आदि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक जीवन में भी अस्वस्थता, रुग्णता, पीडा पा सकती है / धर्म के प्रति उत्साह में शिथिलता आना रुग्णता है, कुठा आना अस्वस्थता है, धर्म की बात अप्रिय लगना पीडा है। शरीर के रोगों को मिटाने के लिए सुयोग्य चिकित्सक चाहिए, उसी प्रकार धार्मिक आरोग्य देने के लिए भी वैसे ही कुशल व्यक्ति की आवश्यकता होती हैं / अग्निमित्रा वैसी ही कौशल-सम्पन्न 'धर्मवैद्या' थी। 1. देखें सूत्र-संख्या 89 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org