Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [175 दस हजार गायों के पाठ गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में थे। बाकी बारह पत्नियों के पास उनके पीहर से प्राप्त एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दस-दस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में था। महाशतक द्वारा वत-साधना 235. तेणं कालेणं तेणं सभएणं सामी समोसढे / परिसा निग्गया। जहा आणंदो तहा निग्गच्छद। तहेव सावय-धम्म पडिवज्जइ। नवरं अटू हिरण्णकोडीओ सकंसाओ उच्चारेइ, अटू वया, रेवडपामोक्खाहि तेरसहि भारियाहि अवसेसं मेहणविहिं पच्चक्खाइ / सेसं सव्वं तहेव, इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कल्लाल्लि च णं कप्पइ मे बे-दोणियाए कंस-पाईए हिरण्ण-भरियाए संववहरितए। उस समय भगवान् महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ। परिषद् जुड़ी / महाशतक आनन्द की तरह भगवान् की सेवा में गया। उसी की तरह उसने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। केवल इतना अन्तर था, महाशतक ने परिग्रह के रूप में आठ-आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं निधान आदि में रखने की तथा पाठ गोकुल रखने की मर्यादा की। रेवती आदि तेरह पत्नियों के सिवाय अवशेष मैथुन-सेवन का परित्याग किया। उसने बाकी सब प्रत्याख्यान आनन्द की तरह किए / केवल एक विशेष अभिग्रह लिया--एक विशेष मर्यादा और की-मैं प्रतिदिन लेन-देन में दो द्रोण-परिमाण कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की सीमा रखूगा। 236. तए णं से महासयए समणोबासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' बिहरइ / तब महाशतक, जो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर चुका था, श्रमणोपासक हो गया / धार्मिक जीवन जीने लगा। 237. तए णं समणे भगवं महावीरे वहिया जणवय-विहारं विहरइ / तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए / रेवती को दुर्लालसा 238. तण णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि कुडुम्ब जाव (जागरियं जागरमाणीए) इमेयारूवे अज्झथिए'एवं खलु अहं इमासि दुवालसण्हं सवत्तीणं विधाएणं नो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई माणुस्सयाहं भोगभोगाई भुजमाणी विहरित्तए / तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालस वि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा, सत्थप्पओगेणं वा, विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयासि एगमेगं हिरण्ण-कोडि, एगमेगं वयं सयमेव उबसम्पज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई जाव (माणुस्सयाई भोगभोगाई भुजमाणी) विहरित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहेता तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org