________________ आठवां अध्ययन : सार: संक्षेप] [171 रेवती एक कुलांगना थी, राजगृह के एक सम्भ्रान्त और सम्माननीय गाथापति की पत्नी थी। पर, दुर्व्यसनों में फंसकर वह धर्म, प्रतिष्ठा, कुलीनता सब भूल जाती है और निर्लज्ज भाव से अपने साधक पति को गिराना चाहती है। ___ महाकवि कालिदास ने बड़ा सुन्दर कहा है, वास्तव में धीर वही हैं, विकारक स्थितियों की विद्यमानता के बावजूद जिनके चित्त में विकार नहीं आता / ' महाशतक वास्तव में धीर था। यही कारण है, वैसी विकारोत्पादक स्थिति भी उसके मन को विकृत नहीं कर सकी / वह उपासना में सुस्थिर रहा। __ रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वही कुचेष्टा की। श्रमणोपासक महाशतक, जो अब तक आत्मस्थ था, कुछ क्षुब्ध हुआ। उसने अवधिज्ञान द्वारा रेवती का भविष्य देखा और बोला-तुम सात रात के अन्दर भयानक अलसक रोग से पीडित होकर अत्यन्त दु:ख, व्यथा, वेदना और क्लेश पूर्वक मर जाओगी। मर कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की आयु वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होगी। __ . रेवती ने ज्यों ही यह सुना, वह कांप गई। अब तक जो मदिरा के नशे में और भोग के उन्माद में पागल बनी थी, सहसा उसकी आंखों के आगे मौत की काली छाया नाचने लगी। उन्हीं पैरों वह वापिस लौट गई / फिर हुआ भी वैसा ही, जैसा महाशतक ने कहा था। वह सात रात में भीषण अलसक व्याधि से पीडित होकर प्रार्तध्यान और असह्य वेदना लिए मर गई, नरकगामिनी संयोग से भगवान् महावीर उस समय राजगृह में पधारे / भगवान् तो सर्वज्ञ थे, महाशतक के साथ जो कुछ घटित हुआ था, वह सब जानते थे। उन्होंने अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को यह बतलाया और कहा—गौतम ! महाशतक से भूल हो गई है / अन्तिम संलेखना और अनशन स्वीकार किये हुए उपासक के लिए सत्य, यथार्थ एवं तथ्य भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ हो, तो कहना कल्पनीय-धर्म-विहित नहीं है। वह किसी को ऐसा सत्य भी नहीं कहता, जिससे उसे भय, त्रास और पीडा हो। महाशतक ने अवधिज्ञान द्वारा रेवती के सामने जो सत्य भाषित किया. वह ऐसा ही था। तुम जाकर महाशतक से कहो, वह इसके लिए आलोचना-प्रतिक्रमण करे, प्रायश्चित्त स्वीकार करे / जैनदर्शन का कितना ऊंचा और गहरा चिन्तन यह है / आत्म-रत साधक के जीवन में समता, अहिंसा एवं मैत्री का भाव सर्वथा विद्यमान रहे, इससे यह प्रकट है / गौतम महाशतक के पास आए। भगवान् का सन्देश कहा / महाशतक ने सविनय शिरोधार्य किया, आलोचना-प्रायश्चित्त कर वह शुद्ध हुआ। श्रमणोपासक महाशतक आत्म-बल संजोये धर्मोपासना में उत्साह एवं उल्लास के साथ तन्मय रहा। यथासमय समाधिपूर्वक देह-त्याग किया, सौधर्मकल्प में अरुणावतंसक विमान में वह देव रूप से उत्पन्न हुना। 1. विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः / -कुमारसंभव सर्ग-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org