Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 126] [उपासकदशांगसूत्र जाव' कणीयसं जाव' आयंचामि / एक दिन की बात है, आधी रात के समय चुल्लशतक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उसने तलवार निकाल कर कहा-अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! यदि तुम अपने व्रतों का त्याग नहीं / करोगे तो मैं आज तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से उठा लाऊंगा। चुलनीपिता के साथ जैसा हुआ था, वैसा ही घटित हुआ / देव ने बड़े, मंझले तथा छोटेतीनों पुत्रों को क्रमशः मारा, मांस-खण्ड किए / मांस और रक्त से चुल्लशतक की देह को छींटा / इतना ही भेद रहा, वहाँ देव ने पांच-पांच मांस-खंड किए थे, यहाँ देव ने सात-सात मांस-खंड किए। 159. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए जाव विहरइ / श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भय भाव से उपासनारत रहा / सम्पत्ति-विनाश की धमकी 160. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासी-हं भो! चुल्लसयगा! समणोवासया ! जावन भंजेसि तो ते अज्ज जाओ इमाओ छ हिरण्ण-कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुद्धि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, ताओ साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडय जाव (तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-) पहेसु सव्वओ समंता विप्पइरामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / देव ने श्रमणोपासक चुल्लशतक को चौथी बार कहा--अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! तुम अब भी अपने व्रतों को भंग नहीं करोगे तो मैं खजाने में रखी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं, व्यापार में लगी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर के वैभव और साज-सामान में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को ले आऊंगा / लाकर पालभिका नगरी के शृगाटक-तिकोने स्थानों, त्रिक-तिराहों, चतुष्क-चौराहों, चत्वर–जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों-ऐसे स्थानों, चतुर्भुज-जहाँ से चार रास्ते निकलते हों, ऐसे स्थानों तथा महापथ-बड़े रास्तों या राजमार्गों में सब तरफ चारों ओर बिखरे दूगा / जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। 161. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 154 2. देखें सूत्र-संख्या 154 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 153 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org