Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ _ [141 सातवां अध्ययन : सार : संक्षेप यथार्थ तत्त्व प्राप्त कर चुका था, वह विचलित कैसे होता ? निराश होकर गोशालक वहां से विहार कर गया / सकडालपुत्र पूर्ववत् अपने सांसारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह के साथ-साथ धर्मोपासना में लगा रहा / यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। पन्द्रहवां वर्ष आधा बीत चुका था। एक बार आधी रात के समय सकडालपूत्र अपनी धर्माराधना में निरत था, एक मिथ्यात्वी देव उसे व्रत-च्युत कर आया, व्रत छोड़ देने के लिए उसके पुत्रों को मार डालने की धमकी दी। सकडालपुत्र अविचल रहा तब उसने उसीके सामने क्रमश: उसके तीनों बेटों को मार-मार कर प्रत्येक के नौ-नौ मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया और उनका मांस व रक्त उसके शरीर पर छींटा / पर, सकडालपुत्र प्रात्म-बल और धैर्य के साथ यह सब सह गया, उसकी आस्था नहीं डगमगाई। फिर भी देव निराश नहीं हुआ। उसने सोचा कि सकडालपुत्र के जीवन में अग्निमित्रा का बहुत बड़ा महत्त्व है, वह केवल पतिपरायणा पत्नी ही नहीं है, सुख दुःख में सहयोगिनी है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह उसके धार्मिक जीवन की अनन्य सहायिका है। यह सोचकर उसने सकडालपत्र के समक्ष उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालने और वैसी ही दर्दशा करने की धमकी दी। जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की हत्या अपनी आंखों के आगे देख अविचलित रहा, वह इस धमकी से क्षुभित हो गया। उसमें क्रोध जागा और उसने सोचा, इस दुष्ट को मुझे पकड़ लेना चाहिए। वह झट पकड़ने के लिए उठा, पर उस देव-षड्यन्त्र में कौन किसे पकड़ता? देव लुप्त हो गया / सकडालपुत्र के हाथों में सामने का खम्भा पाया। यह सब अनहोनी घटनाएं देख सकडालपुत्र घबरा गया और उसने जोर से कोलाहल किया। अग्निमित्रा ने जब यह सुना तो तत्क्षण वहां आई, पति की सारी बात सुनी और बोली- परीक्षा की अन्तिम चोट में आप हार गए / वह मिथ्यादृष्टि देव आखिर आपका व्रत भंग करने में सफल हो गया। इस भूल के लिए आप प्रायश्चित्त कीजिए। सकडालपुत्र ने वैसा ही किया। सकडालपुत्र का अन्तिम जीवन भी बहुत ही प्रशस्त रहा / उसने एक मास की अन्तिम संलेखना और अनशन के साथ समाधि-मरण प्राप्त किया। देहत्याग कर वह अरुणभूत विमान में चार पल्योपमस्थितिक देव हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org