Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सातवां अध्ययन : सकबालपुत्र] [147 जो कमल के पत्ते पर पड़े जल और पारे की नोक पर पड़ी सरसों की तरह भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूं। ___ जो गम्भीर-प्रज्ञाशील, मेधावी एवं मार्ग-प्रमार्ग का ज्ञाता है, जिसने उत्तम अर्थ---सत्य को प्राप्त कर लिया है, वही वास्तव में ब्राह्मण है / जो अस और स्थावर-चर-अचर सभी प्राणियों की हिंसा से विरत है, न स्वयं उन्हें मारता है, न मारने की प्रेरणा करता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ।"" उत्तराध्ययन तथा धम्मपद के प्रस्तुत विवेचन की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही स्थानों पर ब्राह्मण के तपोमय, ज्ञानमय तथा शीलमय व्यक्तित्व के विश्लेषण में दृष्टिकोण की समानता रही है। गुण-निष्पन्न ब्राह्मणत्व के विवेचन में वैदिक वाङमय में भी हमें अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होते हैं / महाभारत के शान्तिपर्व में इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न प्रसंगों में विवेचन हुआ है / ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का लक्षण बताते हुए एक स्थान पर कहा गया है ब्राह्मण गन्ध, रस, विषय-सुख एवं आभूषणों की कामना न करे। वह सम्मान, कीर्ति तथा यश की चाह न रखे / द्रष्टा ब्राह्मण का यही आचार है / / जो समस्त प्राणियों को अपने कुटुम्ब की भांति समझता है, जानने योग्य तत्त्व का ज्ञाता होता है, कामनाओं से बजित होता है, वह ब्राह्मण कभी मरता नहीं अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। जब मन, वाणी और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति विकारयुक्त भाव नहीं करता, तभी व्यक्ति ब्रह्मभाव या ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है। कामना ही इस संसार में एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है / जो कामना के बन्धन से मुक्त हो जाता है, वह ब्रह्मभाव-ब्राह्मणत्व प्राप्त करने में समर्थ होता है। जिससे बिना भोजन के ही मनुष्य परितृप्त हो जाता है, जिसके होने पर धनहीन पुरुष भी पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, घृत आदि स्निग्ध पौष्टिक पदार्थ सेवन किए बिना ही जहाँ मनुष्य अपने में अपरिमित शक्ति का अनुभव करता है, वैसे ब्रह्मभाव को जो अधिगत कर लेता है, वही वेदवेत्ता ब्राह्मण है। कर्मों का अतिक्रम कर जाने वाले कर्मों से मुक्त, विषय-वासनाओं से रहित, आत्मगुण को प्राप्त किए हुए ब्राह्मण को जरा और मृत्यु नहीं सताते / "2 / इसी प्रकार इसी पर्व के ६२वें अध्याय में, ७६वें अध्याय में तथा और भी बहुत से स्थानों पर ब्राह्मणत्व का विवेचन हुआ है। प्रस्तुत विवेचन की गहराई में यदि हम जाएं तो स्पष्ट रूप में यह प्रतीत होगा कि महाभारतकार व्यासदेव की ध्वनि भी उत्तराध्ययन एवं धम्मपद से कोई भिन्न नहीं है। 1. धम्मपद ब्राह्मणवग्गो 3, 8, 9, 13, 15, 17, 18, 19, 21, 23 / 2. महाभारत शान्तिपर्व 251. 1, 3, 6, 7, 18, 22 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org