Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 100] [उपासकदशांगसूत्र पारण-समापन करू। यों सोच कर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भली-भाँति पहने, (थोड़े से बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत किया, कुरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए पुरुषसमूह से घिरा हुआ) अपने घर से निकला / निकल कर चंपा नगरी के बीच से गुजरा, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, (जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे,) शंख श्रावक की तरह आया / आकर (तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर त्रिविध-कायिक, वाचिक एवं मानसिक) पर्युपासना की। 115. तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव' धम्मकहा समत्ता। श्रमण भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परिषद् को धर्म-देशना दी। भगवान् द्वारा कामदेव की वर्धापना 116. कामदेवा ! इ समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नणं कामदेवा! तुम्भं पुत्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतिए पाउम्भूए / तए णं से देवे एगं महं दिग्वं पिसाय-रूवं विउब्वइ, विउम्वित्ता आसुरते एगं महं नीलुप्पल जाव (-गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासं, खुरधार) असि गहाय तुमं एवं वयासो-हं भो कामदेवा ! जाव' जीवियाओ ववरोविज्जसि / तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव 3 विहरसि / / एवं वण्णगरहिया तिणि वि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयव्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा ! अट्ठ सम? ? हंता, अस्थि / श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव से कहा—कामदेव ! आधी रात के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया / वैसा कर, अत्यन्त ऋद्ध हो, उसने (नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फल जैसी गहरी नीली तेज धार वाली) तलवार निकाल कर तुम से कहा-कामदेव ! यदि तुम अपने शील आदि व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक् कर दिए जाओगे / उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी तुम निर्भय भाव से उपासनारत रहे। तीनों उपसर्ग विस्तृत वर्णन रहित, देव के वापस लौट जाने तक पूर्वोक्त रूप में यहाँ कह लेने चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा-कामदेव क्या यह ठीक है ? कामदेव बोला--भगवन् ! ऐसा ही हुआ। 117. अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेता एवं / 1. देखें सूत्र-संख्या 11 2. देखें सूत्र-संख्या 107 3. देखें सूत्र-संख्या 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org