________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] मौत को चाहनेवाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं तुम्हारे मंझले पुत्र को, घर से उठा लाऊंगा और तुम्हारे सामने तुम्हारे बड़े बेटे की तरह उसकी भी हत्या कर डालूगा / इस पर भी चुलनीपिता जब अविचल रहा तो देव ने वैसा ही किया / उसने तीसरी बार फिर छोटे लड़के के सम्बन्ध में वैसा ही करने को कहा / चुलनीपिता नहीं घबराया / देव ने छोटे लड़के के साथ भी वैसा ही किया / चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। मातृ-वध को धमकी 133. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता चउत्थं पि चुलणोपियं समणोवासयं एवं बयासी हं भो! चुलणीपिया ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया! जइ णं तुमं जाव न भंजेसि, तओ अहं अज्ज जा इमा तव माया भद्दा सत्यवाही देवयगुरुजणणी, दुक्करदुक्करकारिया, तं ते साओ गिहाओ नीमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहाणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / देव ने जब श्रमणोपासक चुलनीपिता को इस प्रकार निर्भय देखा तो उसने चौथी बार उससे कहा-मौत को चाहने वाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे तो मैं तुम्हारे लिए देव और गुरु सदृश पूजनीय, तुम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली अथवा अति कठिन धर्मक्रियाएं करने वाली तुम्हारी माता भद्रा सार्थवाही को घर से यहाँ ले आऊंगा / लाकर तुम्हारे सामने उसकी हत्या करूंगा, उसके तीन मांस-खंड करूगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा / उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींगा-छींटूगा, जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों में हाथ धो बैठोगे।। विवेचन-- प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक चुलनीपिता की माता भद्रा सार्थवाही का एक विशेषण देव-गुरुजननी आया है, जो भारतीय प्राचार-परम्परा में माता के प्रति रहे सम्मान, आदर और श्रद्धा का द्योतक है / माता का सन्तति पर निश्चय ही अपनी सेवाओं का एक ऐसा ऋण होता हैं, जिसे किसी भी तरह उतारा जाना सम्भव नहीं है। इसलिए यहां माता की देवतुल्य पूजनीयता एवं सम्माननीयता की ओर संकेत है। डॉ. रुडोल्फ हॉर्नले ने एक पुरानी व्याख्या के आधार पर देव-गुरु का अर्थ देवताओं के गुरुबृहस्पति किया है / यों उनके अनुसार माता बृहस्पति के समान पूजनीय है। भारत की सभी परम्पराओं के साहित्य में माता का असाधारण महत्व स्वीकार किया गया हैं। 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' के अनुसार माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है / मनु ने तो माता का बहुत अधिक गौरव स्वीकार किया है / उन्होंने माता को पिता से 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 107 3. The Uvasagadasao Lecture III Page 94 Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org