________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव] [121 तच्च पि भणइ जाव (जह णं तुम अज्ज सोलाइं, वयाइं, वेरमणा, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाई न छड्डेसि, न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज सरीरंसि जमग-समगमेव सोलस रोगायंके पक्खिवामि जहा णं तुमं अट्ट-बुहट्ट-वस? अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / श्रमणोपासक सुरादेव (उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी जब भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित, चलित तथा प्राकुल नहीं हुया, चुपचाप-शान्त-भाव से) धर्म-ध्यान में लगा रहा तो उस देव ने दूसरी बार, तीसरी बार. फिर वैसा ही कहा—(यदि तुम आज शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो-भंग नहीं करते हो तो मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ सोलह भयानक रोग पैदा कर दूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर) असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। सुरादेव का क्षोम 154. तए णं तस्स सुरादेवस्य समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव' समायरइ, जेणं ममं जेट्ट पुत्तं जाव (साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, घाएता पंच मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अहहेइ, अइहेत्ता ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जे गं ममं मजिसमं पुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता मम अम्गओ घाएइ, घाएत्ता पंच-मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आवाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता मम गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जे णं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नोणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, धाएता पंच मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता मम गायं मंसेण य सोणिएण य) आयंचइ, जे वि य इमे सोलस रोगायंका, ते वि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए / से वि य आगासे उप्पइए। तेण य खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। ___ उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक सुरादेव के मन में ऐसा विचार आया, यह अधम पुरुष (जो मेरे बड़े लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसकी हत्या की, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा, जो मेरे मंझले लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसको मारा, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा- छींटा, जो मेरे छोटे लड़के को घर से उठा लाया, मेरे सामने उसका वध किया, उसके पांच मांस-खंड किए, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा,) मेरे शरीर में सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर देना चाहता है। अत: मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों सोचकर वह पकड़ने के लिए उठा / इतने में वह देव आकाश में उड़ गया / सुरादेव के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया / वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। 155. तए णं साधना भारिया कोलाहलं सोच्चा, निसम्म, जेणेव सुरादेवे समणोवासए, 1. देखें सूत्र-संख्या 145 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org