Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील-भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुंच गए। वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनि-लम्पट हो। इन्द्र की निन्दनीय योनि-लम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्र योनियां बन जाने का शाप दे डाला। तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियां उद्भूत हो गईं। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा--पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे। तदनन्तर सूर्य की आराधना से ये सहस्र योनियां नेत्र रूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्राक्ष-हजार नेत्रों वाले बन जाओगे / आगे चल कर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की आराधना से सहस्राक्ष बन गया।' 112. तए णं से कामदेवे समणोवासए निरुवसग्गं इइ कट्ठ पडिमं पारेइ / तब श्रमणोपासक कामदेव ने यह जानकर कि अब उपसर्ग-विघ्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण-समापन किया। भगवान् महावीर का पदार्पण : कामदेव द्वारा बन्दन-नमन 113. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव (जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ / ___ उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर (जहां चंपा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे, यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम एवं तप से) आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। 114. तए णं से कामदेवे समणोवासए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव' विहरइ / तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीर वंदित्ता, नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता सुद्धप्पावेसाई वत्थाई जाव (पवर-परिहिए) अप्पमहग्या-जाव (-भरणालंकिय-सरीरे सकोरेण्ट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) मणुस्स-वग्गुरापरिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं नरि मझ-मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव (जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, बंदित्ता, नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए) पज्जुवासइ / श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सुना कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का 1. ब्रह्मवैवर्त पुराण 4.4.7. 19-32 2. देखें सूत्र-संख्या 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org