________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव [101 बयासी-जइ ताव, अज्जो ! समणोवासगा, गिहिणो, गिहमजमावसंता दिव्य-माणुस-तिरिक्ख-जोगिए उवसग्गे सम्म सहति जाव (खमंति, तितिक्खंति) अहियासेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहि निग्गंथेहिं दुवालसंग-गणि-पिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्व-माणुस-तिरिक्ख-जोणिए (उवसग्गे) सम्म सहित्तए जाव (खमित्तए, तितिक्खित्तए) अहियासित्तए / भगवान महावीर ने बहुत से श्रमणों और श्रमणियों को संबोधित कर कहा-आर्यों ! यदि श्रमणोपासक गृही घर में रहते हुए भी देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत-पशु पक्षीकृत उपसर्गों को भली भाँति सहन करते हैं (क्षमा एवं तितिक्षा भाव से झेलते हैं) तो आर्यो ! द्वादशांग-रूप गणिपिटक का-प्राचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहन करना (क्षमा एवं तितिक्षा-भाव से झेलना) शक्य है ही। 118. तओ ते बहवे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्य भगवओ महावीरस्स तह ति एयभट्ट विणएणं पडिसुणेति / श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन बहु-संख्यक साधु-साध्वियों ने ऐसा ही है' भगवन् !' यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया / 119. तए णं कामदेवे समणोवासए हट्ट जाव' समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छह, अट्ठमादियइ / समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव विसं पडिगए। श्रमणोपासक कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न पूछे अर्थ समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार कर, जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। 120. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ / श्रमण भगवान् महावीर ने एक दिन चम्पा से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वे अन्य जनपदों में विहार कर गए / कामदेवः स्वर्गारोहण 121. तए णं कामदेवे समणोवासए पढम उवासग-पडिमं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक कामदेव ने पहली उपासकप्रतिमा की आराधना स्वीकार की। 122. तए णं से कामदेवे समणोवासए बहूहि जाव (सोल-वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि अप्पाणं) भावत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासत्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं मूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए 1. देखें सूत्र-संख्या 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org