Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव / [93 सर्प के रूप में उपसर्ग 107. तए णं से देवे हस्थि-रूवे कामदेवं ससणोवासयं जाहे नो संचाएइ जाव (निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते) सणियंसणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसह-सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं हत्यिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहिता एगं महं दिव्वं सप्प-रूवं विउव्वइ, उग्ग-विसं, चंड-विसं, घोर-विसं, महाकायं, मसी-मूसा-कालगं, नयण-विस-रोस-पुण्णं, अंजण-पुज-निगरप्पगासं, रत्तच्छं लोहिय लोयणं, जमल-जुयल-चंचल-जीहं, धरणीयल-वेणीभूयं, उक्कड-फुड-कुडिल-जडिल-कक्कस-वियड-फुडाडोवकरण-दच्छं, लोहागर-धम्ममाण-धमधमैतघोस, अणागलिय-तिब्व-चंड-रोसं सप्प-रूवं विउब्वइ, विउवित्ता जेणेव पोसह-साला जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! समणोवासया ! जाव (सीलाई वयाई, वेरमणाई, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाइं न छड्डसि,) न भंजेसि, तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कायं दुरुहामि, दुरुहिता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं, वेढेमि, वेढित्ता तिक्खाहिं विस-परिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्ट मि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / जब हस्तीरूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हट कर पोषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया। वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया। वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था। वह स्याही और मुस-धातु गलाने के पात्र जैसा काला था। उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था / वह काजल के ढेर जैसा लगता था। उसकी आंखें लाल-लाल थीं। उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-बाहर लपलपा रही थी। कालेपन के कारण वह पृथ्वी (पृथ्वी रूपी नारी) की वेणी-चोटी---जैसा लगता था। वह अपना उत्कट–उग्र, स्फुट--देदीप्यमान, कुटिल-टेढ़ा, जटिल-मोटा, कर्कश-कठोर, विकट-भयंकर फन फैलाए हुए था / लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार कर रहा था / उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रुकता था। वह सर्परूपधारी देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां पाया। र श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अरे—कामदेव ! यदि तुम शील, व्रत (विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो,) भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हा तुम्हारे शरीर पर चढूगा / चढ़ कर पिछले भाग से पूछ की ओर से तुम्हारे गले में तीन लपेट लगाऊंगा। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीले दांतों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूगा, जिससे तुम आर्त ध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक हो जाओगे—मर जाओगे। 108. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्प-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ / सो वि दोच्चंपि तच्चपि भणइ / कामदेवो वि जाव' विहरइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org