________________ 92] [उपासकदशांगसूत्र ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया / आकर श्रमणोपासक कामदेव से पूर्ववणित पिशाच की तरह बोला—यदि तुम अपने व्रतों का (शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो,) भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूड से पकड़ लूगा / पकड़ कर पोषधशाला से बाहर ले जाऊंगा। बाहर ले जा कर ऊपर आकाश में उछालूगा / उछाल कर अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेलूगा / झेल कर नीचे पृथ्वी पर तीन वार पैरों से रौंदूगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगेमर जाओगे। 103. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं हत्थि-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभीए जाव' विहरइ / हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना-रत रहा। 104. तए णं से देवे हस्थि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! तहेव जाव' सो वि विहरइ। __ हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था / पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा / 105. तए णं से देवे हत्यि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरत्ते 4 कामदेवं समणोवासयं सोंडाए गिण्हेइ, गेण्हेत्ता उड्ढं वेहासं उन्विहइ, उविहित्ता तिखेहि दंत-मुसलेहि पडिच्छइ, पडिच्छेत्ता अहे धरणि-तलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेइ / हस्तीरूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूड से उसको पकड़ा। पकड़कर आकाश में ऊंचा उछाला / उछालकर फिर नीचे गिरते हुए को अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेला और झेल कर नीचे जमीन पर तीन वार पैरों से रौंदा।। 106. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव (विउयं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं, दुरहियासं वेयणं सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ / श्रमणोपासक कामदेव ने (सहनशीलता, क्षमा एवं तितिक्षापूर्वक तीव्र, विपुल, कठोर, प्रगाढ, रौद्र तथा कष्टप्रद) वेदना झेली। 1. देखें सूत्र संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org