Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पहला अध्ययन : गाथापति आनन्द] इहलोक-प्राशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्रयोग, मरण-आशंसाप्रयोग तथा काम-भोग-प्राशंसाप्रयोग / विवेचन जैनदर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है-आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति / उस पर कर्मों के जो आवरण पाए हुए हैं, उन्हें क्षीण करते हुए इस दिशा में बढ़ते जाना, साधना की यात्रा है / देह उसमें उपयोगी है / सांसारिक कार्य जो देह से सधते हैं, वे तो प्रासंगिक हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से देह का यथार्थ उपयोग, संवर तथा निर्जरामूलक धर्म का अनुसरण है। उपासक या साधक अपनी देह की परिपालना इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहयोगी है / न कोई सदा युवा रहता है और न स्वस्थ, सुपुष्ट ही / युवा वृद्ध हो जाता है, स्वस्थ, रुग्ण हो ाता है और सपष्ट दर्बल / एक ऐसा समय आ जाता है, जब देह अपने निर्वाह के लिए स्वयं दूसरों का सहारा चाहने लगती है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति धार्मिक क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन में उत्साह घटने लगता है, कमजोरी आने लगती है, विचार मलिन होने लगते हैं, जीवन एक भार लगने लगता है। भार को तो ढोना पड़ता है। विवेकी साधक ऐसा क्यों करे ? जैनदर्शन वहां साधक को एक मार्ग देता है / साधक शान्ति एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह खान-पान का परित्याग कर देता है और एकान्त या पवित्र स्थान में आत्मचिन्तन करता हुआ भावों की उच्च भूमिका पर आरूढ हो जाता है। इस व्रत को संलेषणा कहा जाता है / वृत्तिकार अभयदेव सूरि ते संलेषणा का अर्थ शरीर एवं कषायों को कृश करना किया है / संलेषणा के आगे जोषणा और आराधना दो शब्द और हैं / जोषणा का अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन है। आराधना का अर्थ अनुसरण करना या जीवन में उतारना है अर्थात् संलेषणा-वत का प्रसन्नतापूर्वक अनुसरण करना / दो विशेषण साथ में और हैंअपश्चिम और मरणान्तिक / अपश्चिम का अर्थ है अन्तिम या आखिरी, जिसके बाद इस जीवन में और कुछ करना बाकी न रह जाय / मरणान्तिक का अर्थ है, मरण पर्यन्त चलने वाली प्राराधना / इस व्रत में जीवन भर के लिए आहार-त्याग तो होता ही है, साधक लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को भी छोड़ देता है। उसमें इतनी आत्म-रति व्याप्त हो जाती है कि जीवन और मृत्यु की कामना से वह ऊंचा उठ जाता है / न उसे जीवन की चाह रहती है कि वह कुछ समय और जी ले और न मृत्यु से डरता है तथा न उसे जल्दी पा लेने के लिए आकुल-आतुर होता है कि देह का अन्त हो जाय, अाफत मिटे। सहज भाव से जब भी मौत आती है, वह उसका शान्ति से वरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से कितनी पवित्र, उन्नत और प्रशस्त मन:स्थिति यह है / इस व्रत के जो अतिचार परिकल्पित किए गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि साधक की यह पुनीत वृत्ति कहीं व्याहत न हो जाय / अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इहलोक-ग्राशंसाप्रयोग-ऐहिक भोगों या सुखों को कामना, जैसे मैं मरकर राजा, समृद्धिशाली तथा सुखसंपन्न बनू / परलोक-आशंसाप्रयोग-परलोक-स्वर्ग में प्राप्त होने वाले भोगों की कामना करना, जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org