Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : गायापति आनन्द] [71 तं अस्थि ता मे उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, सद्धा, धिई, संवेगे / तं जाव ता मे अस्थि उटाणे सद्धा धिई संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए, धम्मोवएसए, समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ता मे सेयं कल्लं जाव' जलंते अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाझूसियस्स, भत्त-पाण-पडियाइविखयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाकर अपच्छिममारणंतिय जाव (संलेहणा-झूसणा-झूसिए, भत्त-पाण-पडियाइक्खिए,) कालं अणवकंखमाणे विहरइ। एक दिन आधी रात के बाद धर्मजागरण करते हए अानन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव या संकल्प उत्पन्न हुआ---[इस प्रकार श्रावक-प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से मेरा शरीर सूख गया है, रूक्ष हो गया है, उस पर मांस नहीं रहा है, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रही हैं, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर अावाज करने लगी हैं,] शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि उस पर उभरी हुई नाड़ियाँ दीखने लगी हैं। मुझ में उत्थान-धर्मोन्मुख उत्साह, कर्म-तदनुरूप प्रवृत्ति, बल-शारीरिक शक्ति-दृढता, वीर्य-पान्तरिक प्रोज, पूरुषाकार पराक्रम--पुरुषोचित पराक्रम या अन्तःशक्ति, श्रद्धा-धर्म के प्रति आस्था, धृति-सहिष्णुता, संवेग- मुमुक्षुभाव है / जब तक मुझमें यह सब है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन-राग-द्वेष-विजेता, सुहस्ती श्रमण भगवान् महावीर विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर ल, खान-पान का प्रत्याख्यान—परित्याग कर दू, मरण की कामना न करता हुआ, आराधनारत हो जाऊं-शान्तिपूर्वक अपना अन्तिम काल व्यतीत करू / आनन्द ने यों चिन्तन किया। चिन्तन कर दूसरे दिन सवेरे अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ वह आराधना में लीन हो गया। 74. तए णं तस्स आणंदस समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहि-नाणे समुप्पन्ने। पुरस्थिमे णं लवण-समुद्दे पंच-जोयणसयाई खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणे णं पच्चस्थिमे ण य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं जाणइ, पासइ, उड्ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं जाणइ पासइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक अानन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय-मनःसंकल्प, शुभ परिणाम–अन्तः परिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं--पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मपरिणामों या विचारों के कारण, अवधि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो गया / फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-प्रथम 1. देखें सूत्र संख्या 66 2. देखें सूत्र संख्या 66 3. भगवान महावीर का एक उत्कर्ष-सूचक विशेषण / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org