________________ द्वितीय अध्ययन सार : संक्षेप श्रमण भगवान् महावीर के समय की बात है, पूर्व बिहार में चम्पा नामक नगरी थी / वहां के राजा का नाम जितशत्रु था / सम्भवत: चम्पा नगरी को अवस्थिति, आज जहां भागलपुर है, उसके आस-पास थी / कुछ अवशेष, चिह्न आदि आज भी वहां विद्यमान हैं। चम्पा अपने युग की एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। वहां कामदेव नामक एक गाथापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था, जो सुयोग्य तथा पतिपरायण थी। कामदेव एक बहुत समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था। उसकी सम्पत्ति माथापति आनन्द से भी बड़ी-चढ़ी थी। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूजी के रूप में उसके खजाने में थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-उपकरण, साज-सामान आदि के उपभोग में आ रही थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके वहां थे। इतने बड़े वैभवशाली पुरुष के दासदासियों, कर्मचारियों आदि की संख्या भी बहुत बड़ी रही होगी / लौकिक भाषा में जिसे सुख, समृद्धि तथा सम्पन्नता कहा जाता है, वह सब कामदेव को प्राप्त था। कामदेव का पारिवारिक जीवन सुखी था। वह एक सौजन्यशील तथा मिलनसार व्यक्ति था / वह समाज में अग्रगण्य था / राजकीय क्षेत्र में उसका भारी सम्मान था / नगर के सम्भ्रान्त और प्रतिष्ठित जन महत्त्वपूर्ण कार्यों में उसका परामर्श लेते थे, उसकी बात को आदर देते थे / यह सब इसलिए था कि कामदेव विवेकी था। प्रानन्द की तरह कामदेव के जीवन में भी एक नया मोड़ आया। उसके विवेक को जागत होने का एक विशेष अवसर प्राप्त हुआ / जन-जन को अहिंसा, समता और सदाचार का संदेश देते हुए श्रमण भगवान् महावीर अपने पाद-बिहार के बीच चम्पा पधारे / पूर्णभद्र नामक चैत्य में रुके। भगवान् का पदार्पण हुआ, जानकर दर्शनार्थियों का तांता बंध गया। राजा जितशत्रु भी अपने राजकीय ठाठ-बाट के साथ भगवान के दर्शन करने गया। अन्यान्य धर्मानुरागी नागरिक-जन भी वहाँ पहुंचे / ज्यों ही कामदेव को यह ज्ञात हुआ, वह धर्म सुनने की उत्कंठा लिए भगवान् की सेवा में पहुंचा। धर्म-देशना श्रवण की / उसका विवेक उद्बुद्ध हुआ। उस परम वैभवशाली गाथापति के मन को भगवान् के उपदेश ने एकाएक झकझोर दिया / आनन्द की तरह उसने भगवान् से गृहिधर्म स्वीकार किया। गृहस्थ में रहते हुए भी भोग, वासना, लालसा और कामना की दष्टि से जितना हो सके बचा जाय, जीवन को संयमित और नियंत्रित रखा जाय, इस भावना को लिए हुए कामदेव अपने सभी काम करता था। आसक्ति का भाव उसके जीवन में कम होता जा रहा था। आनन्द की ही तरह फिर जीवन में दूसरा मोड़ आया। उसने पारिवारिक तथा लौकिक त्व अपने ज्येष्ठ पत्र को सौपे. स्वयं अपने आपको अधिकाधिक साधना में लगा यिया। शील व्रत, त्याग-प्रत्याख्यान आदि की आराधना में उसने तन्मय भाव से अपने को रमा दिया / ऐसा करते हुए उसके जीवन में एक परीक्षा की घड़ी आई। वह पोषधशाला में पोषध लिए बैठा था। उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org