________________ 78] . [उपासकदशांगसूत्र दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर, बिना शीघ्रता किए, स्थिरतापूर्वक अनाकुल भाव से युग-परिमाण--साढ़े तीन हाथ तक मार्ग का परिलोकन करते हुए, ईर्यासमितिपूर्वक-भूमि को भली भांति देखकर चलते हुए, जहां वाणिज्यग्राम नगर था, वहां पाए। आकर वहां उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी-भिक्षा-हेतु धूमने लगे। 79. तए णं से भगवं गोयमे वाणियगामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा, जाव (उच्च-नीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स) भिक्खायरियाए अडमाणे अहा-पज्जत्तं भत्त-पाणं सम्म पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे, बहुजणसई निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइएवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाय (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं) अणवकंखमाणे विहरइ / भगवान् गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप (उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी भिक्षा हेतु) धूमते हुए यथापर्याप्त-जितना जैसा अपेक्षित था, उतना आहार-पानी भली-भांति ग्रहण किया / ग्रहण कर वाणिज्यनाम नगर से चले। चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दूर, न अधिक निकट से निकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सुना / वे आपस में यों कह रहे थे-देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासीशिष्य श्रमणोपासक आनन्द पोषधशाला में मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, (खानपान का परित्याग-आमरण अनशन) स्वीकार किए आराधना-रत हैं। 80. तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयमझें सोच्चा, निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि / एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव पोसह-साला, जेणेव आणंदे समणोबासए, तेणेव उवागच्छइ / अनेक लोगों से यह बात सुनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा-मैं श्रमणोपासक अानन्द के पास जाऊं और उसे देखू। ऐसा सोचकर वे जहां कोल्लाक सन्निवेश था, पोषध-शाला थी, श्रमणोपासक आनन्द था, वहां गए / 81. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट जाव' हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव' धमणि-संतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउभवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुम्भे ! इच्छाकारेणं अभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि / 1. देखें सूत्र-संख्या 12 2. देखें सूत्र-संख्या 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org