Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : गायीपति आनन्द] मन और इन्द्रियों का सहयोग अपेक्षित है। वैसे स्थल रूप में हम किसी वस्तु को आँखों से देखते हैं, जानते हैं, उसे प्रत्यक्ष देखना कहा जाता है। पर वह केवल व्यवहार-भाषा है, इसलिए दर्शन में उसकी संज्ञा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है / निश्चय-दृष्टि से वह प्रत्यक्ष में नहीं आता क्योंकि ज्ञाता आत्मा और ज्ञेय पदार्थ में आँखों के माध्यम से वहाँ सम्बन्ध है, सीधा नहीं है। अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान और केवल-ज्ञान में इन्द्रिय और मन के साहाय्य की आवश्यकता नहीं होती / वहाँ ज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच होती है। इसलिए ये प्रत्यक्ष-भेद में आते हैं / इनमें केवल-ज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है और अवधि व मन:पर्याय को विकल या अपूर्ण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि इनसे ज्ञेय के सम्पूर्ण पर्याय नहीं जाने जा सकते। अवधि-ज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान है, जिसके द्वारा व्यक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की एक मर्यादा या सीमा के साथ मर्त या सरूप पदार्थों को जानता है। अवधि-ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम जैसा मन्द या तीव्र होता है, उसके अनुसार अवधि-ज्ञान की व्यापकता होती है। अवधि-ज्ञान के सम्बन्ध में एक विशेष बात और है---देव-योनि और नरक-योनि में वह जन्मसिद्ध है। उसे भव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है / इन योनियों में जीवों को जन्म धारण करते ही सहज रूप में योग्य या उपयुक्त क्षयोपशम द्वारा अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है / इसका आशय यह है कि अवधि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम हेतु उन्हें तपोमूलक प्रयत्न नहीं करना पड़ता / वैसा वहाँ शक्य भी नहीं है। __तप, व्रत, प्रत्याख्यान आदि निर्जरामूलक अनुष्ठानों द्वारा अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम से जो अवधि-ज्ञान प्राप्त होता है, उसे गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है / वह मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है / भव-प्रत्यय और गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान में एक विशेष अन्तर यह हैभव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान देव-योनि और नरक-योनि के प्रत्येक जीव को होता है; गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान प्रत्यय द्वारा भी मनुष्यों और तिर्यञ्चों में सबको नहीं होता, किन्हीं-किन्हीं को होता है, जिन्होंने तदनुरूप योग्यता प्राप्त कर ली हो, जिनका अवधि-ज्ञानावरण का क्षयोपशम सधा हो / आनन्द अपने उत्कृष्ट प्रात्म-बल के सहारे, पवित्र भाव तथा प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति अधिगत कर चुका था, उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों का क्षयोपशम हो गया था, जिसकी फल-निष्पत्ति अवधि-ज्ञान में प्रस्फुटित हुई। प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक अानन्द द्वारा प्राप्त अवधि-ज्ञान के विस्तार की चर्चा करते हुए पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में लवणसमुद्र तथा उत्तर में चुल्लहिमवंत वर्षधर का उल्लेख आया है। इनका मध्यलोक से सम्बन्ध है। जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र ढाई द्वीपों तक विस्तृत है / मध्य में जम्बूद्वीप है, जो वृत्ताकार-गोल है, जिसका विष्कम्भ-व्यास एक लाख योजन है-जो एक लाख योजन लम्बा तथा एक लाख योजन चौड़ा है / जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष तथा ऐरावत वर्ष-ये सात क्षेत्र हैं। इन सातों क्षेत्रों को अलग करने वाले पूर्व-पश्चिम लम्बे-हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी तथा शिखरी-ये छह वर्ष वर्षधर पर्वत हैं। जम्बद्वीप के चारों ओर लवणसमुद्र है। लवणसमुद्र का व्यास जम्बुद्वीप से दुगुना है / लवणसमुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड नामक द्वीप है। उनका व्यास लवणसमुद्र से दुगुना है / धातकीखण्ड के चारों ओर कालोदधि नामक समुद्र है, जिसका विस्तार धातकीखण्ड से दुगुना है / कालोदधिसमुद्र के चारों तरफ पुष्करद्वीप है। इस द्वीप के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org