________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [65 66. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स उच्चावहि सीलव्वयगुणवेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि अप्पाणं भावमाणस्स चोहस संवच्छराई बइक्कताई। पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर जाव' सयस्स वि य णं कुडुबस्स जाव ( मेढी, पमाणं, ) आधारे, तं एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव ( पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियाम्म अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा ) जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं जहा पूरणो, जाव ( उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं विउलेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं वस्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता, सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ) जेट्ट-पुत्तं कुडुबे ठवेत्ता, तं मित्त जाव (नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं ) जेटठपत्तं च आपच्छित्ता, कोल्लाए सन्निवेसे नायकलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं विउलं तहेव जिमिय-भुत्तुत्तरागए तं मित्त जावर विउलेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता तस्सेव मित्त जाव ( नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स ) पुरओ जेठ्ठपुत्तं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! अहं वाणियगामे बहूणं राईसर जहा चितियं जाय (एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपजिताणं) विहरित्तए / तं सेयं खलु मम इदाणि तुमं सयस्स कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं ठवेत्ता जाव ( तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं तुमं च आपुच्छित्ता कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहिता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपज्जिताणं) विहरित्तए / तदनन्तर श्रमणोपासक ग्रानन्द को अनेकविध शीलवत, गुणव्रत, विरमण-विरति, प्रत्याख्यान-त्याग, पोषधोपवास प्रादि द्वारा आत्म-भावित होते हुए प्रात्मा का परिष्कार और परिमार्जन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म-जागरण करते हुए प्रानन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव....चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुअा-वाणिज्यग्राम नगर में बहुत से मांडलिक नरपति, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुष आदि के अनेक कार्यों में मैं पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूं, अपने सारे ब का मैं [ मेढि, प्रमाण तथा] आधार है / इस व्याक्षेप--कार्यबहलता या रुकावट के कारण मैं श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप प्राचार का सम्यक परिपालन नहीं कर पा रहा हूं। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं कल [रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभा एवं लाल 1. देखें सूत्र--संख्या 5 / 2. देखें सूत्र यही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org