Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 52] [उपासकदशांगसूत्र रूपानुपात मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए मुह से कुछ न बोलकर हाथ, अंगुली आदि से संकेत करना / बहिःपुद्गल-प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए कंकड़ आदि फेंक कर दूसरों को इशारा करना।। ये कार्य करने से यद्यपि व्रत के शब्दात्मक प्रतिपालन में बाधा नहीं पाती पर व्रत की आत्मा निश्चय ही इससे व्याहत होती है / साधना का अभ्यास दृढता नहीं पकड़ता, इसलिए इनका वर्जन अत्यन्त आवश्यक है। लौकिक एषणा, आरम्भ आदि सीमित कर जीवन को उत्तरोत्तर आत्म-निरत बनाने में देशावकाशिक व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है / जैन दर्शन का तो अन्तिम लक्ष्य संपूर्ण रूप से प्रात्म-केन्द्रित होना है / अत्यन्त तीव्र और प्रशस्त आत्मबल वालों की तो बात और है, सामान्यतया हर किसी के लिए यह संभव नहीं कि वह एकाएक ऐसा कर सके, इसलिए उसे शनैः शनै एषणा, कामना और इच्छा का संवरण करना होता है / इस अभ्यास में यह व्रत बहुत सहायक है। पोषधोपवास-व्रत के अतिचार 55. तयाणंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जियसिज्जासंथारे, अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमी, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया। तदनन्तर श्रमणोपासक को पोषधोपवास व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-~शय्या-संस्तारक, अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित-शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि, अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित-उच्चारप्रस्रवणभूमि तथा पोषधोपवास--सम्यक्-अननुपालन / विवेचन पोषधोपवास में पोषध एवं उपवास, ये दो शब्द हैं। पोषध का अर्थ धर्म को पोष या पुष्टि देने वाली क्रिया-विशेष है / उपवास 'उप' उपसर्ग और 'वास' शब्द से बना है / 'उप' का अर्थ समीप है / उपवास का शाब्दिक तात्पर्य आत्मा या आत्मगुणों के समीप वास या अवस्थिति है। प्रात्मगुणों का सामीप्य या सान्निध्य साधने के कुछ समय के लिए ही सही, बहिर्मुखता :निरस्त होती है। बहिर्मुखता या देहोन्मुखता में सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण भोजन है। साधक जब आत्म-तन्मयता में होता है तो भोजन आदि बाह्य वृत्तियों से सहज ही दूर हो जाता है। यह उपवास का तात्त्विक विवेचन है / व्यावहारिक दृष्टि से सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक अर्थात् चौबीस घंटे के लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार का त्याग उपवास है / पोषध और उपवास रूप सम्मिलित साधना का अर्थ यह है कि उपवासी उपासक एक सीमित समय-चौबीस घंटे के लिए घर से संबंध तोड़ कर-लगभग साधुवत होकर एक निश्चित स्थान में निवास करता है। सोने, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org