Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] होना शंका है। मन में सन्देह उत्पन्न होने पर जब आस्था डगमगा जाती है, विश्वास हिल जाता है तो उसे शंका कहा जाता है / शंका होने पर जिज्ञासा का भाव हलका पड़ जाता है। संशय जिज्ञासामूलक है / विश्वास या आस्था को दृढ करने के लिए व्यक्ति जब किसी तत्त्व या विषय के बारे में स्पष्टता हेतु और अधिक जानना चाहता है, प्रश्न करता है, उसे शंका नहीं कहा जाता, क्योंकि उससे वह अपना विश्वास दृढ से दृढतर करना चाहता है। जैन आगमों में जब भगवान महावीर के साथ प्रश्नोत्तरों का क्रम चला है, वहाँ प्राश्निक के मन में संशय उत्पन्न होने की बात कही गई है / भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम के प्रश्न तथा भगवान के उत्तर सारे पागम वाङमय में बिखरे पड़े हैं / जहाँ गौतम प्रश्न करते हैं, वहाँ सर्वत्र उनके मन के संशय उत्पन्न होने का उल्लेख है। साथ ही साथ उन्हें परम श्रद्धावान् भी कहा गया है / गौतम का संशय जिज्ञासा-मूलक था। एक सम्यक्त्वी के मन में श्रद्धापूर्ण संशय होना दोष नहीं है, पर उसे अश्रद्धामूलक शंका नहीं होनी चाहिए / कांक्षा-साधारणतया इसका अर्थ इच्छा को किसी ओर मोड़ देना या झुकना है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ बाहरी दिखावे या आडम्बर या दूसरे प्रलोभनों से प्रभावित होकर किसी दूसरे मत की ओर झुकना है / बाहरी प्रदर्शन से सम्यक्त्वी को प्रभावित नहीं होना चाहिए। विचिकित्सा--मनुष्य का मन बड़ा चंचल है / उसमें तरह-तरह के संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। कभी-कभी उपासक के मन में ऐसे भाव भी उठते हैं-वह जो धर्म का अनुष्ठान करता है, तप आदि का आचरण करता है, उसका फल होगा या नहीं ? ऐसा सन्देह विचिकित्सा कहा गया है / मन में इस प्रकार का सन्देहात्मक भाव पैदा होते ही मनुष्य की कार्य-गति में सहज ही शिथिलता आ जाती है, अनुत्साह बढ़ने लगता है। कार्य-सिद्धि में निश्चय ही यह स्थिति बड़ी बाधक है / सम्यक्त्वी को इससे बचना चाहिए। पर-पाषंड-प्रशंसा-भाषा-विज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा बदल जाता है / यही स्थिति 'पाषंड' शब्द के साथ है। आज प्रचलित पाखंड या पाखंडी शब्द इसी का रूप है पर तब और अब के अर्थ में सर्वथा भिन्नता है / भगवान महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाषंडी शब्द अन्य मत के व्रतधारक अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा / आज पाखड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है। ढोगों को पाखडी ता है। प्राचीन काल में पाषंड शब्द के साथ निन्दावाचकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर इस शब्द का अन्य मतावलम्बियों के लिए प्रयोग हुआ है। पर-पाषंड-प्रशंसा सम्यक्त्व का चौथा अतिचार है, जिसका अभिप्राय है, सम्यक्त्वी को अन्य मतावलम्वी का प्रशंसक नहीं होना चाहिए / यहाँ प्रयुक्त प्रशंसा, व्यावहारिक शिष्टाचार के अर्थ में नहीं है, तात्त्विक अर्थ में है / अन्य मतावलम्बी के प्रशंसक होने का अर्थ है, उसके धामिक सिद्धान्तो का सम्मान / यह तभी होता है, जब अपने अभिमत सिद्धान्तों में विश्वास की कमी आ जाय / इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह विश्वास में शिथिलता होने का द्योतक है / सोच समझ कर अ किये गए विश्वास पर व्यक्ति को दृढ रहना ही चाहिए / इस प्रकार के प्रशंसा आदि कार्यों से निश्चय ही विश्वास की दृढता व्याहत होती है। इसलिए यह संकीर्णता नहीं है, आस्था की पुष्टि का एक उपयोगी उपाय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org