Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [23 लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण-कर्मजनित प्रावरण के क्षीण होने से आत्मिक स्वस्थता-परम शान्ति, परिनिर्वृत्त--परिनिर्वाण युक्त व्यक्ति इनका अस्तित्व है। प्राणातिपात--हिंसा, मृषावाद-असत्य, अदत्तादान–चोरी, मैथुन और परिग्रह हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, [प्रेम-अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष-अव्यक्त मान व क्रोध जनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह-लड़ाई-झगड़ा, अभ्याख्यान मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य-चुगली अथवा पीठ पीछे किसी के होते-अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद निन्दा, रति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप संयम में अरुचि रखना, मायामृषा--- माया या छलपूर्वक झूठ बोलना,] यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। प्राणातिपात-विरमण-हिंसा से विरत होना, मृषावादविरमण--असत्य से विरत होना, अदत्तादानविरमण-चोरी से विरत होना, मैथुनविरमण-मैथुन से विरत होना, परिग्रहविरमणपरिग्रह से विरत होना, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक-मिथ्या विश्वास रूप कांटे का यथार्थ ज्ञान होना और त्यागना यह सब है सभी अस्तिभाव-अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अस्तित्व का अस्ति रूप से और सभी नास्तिभाव-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तित्व का नास्ति रूप से प्रतिपादन करते हैं / सूचीर्ण-सुन्दर रूप में--प्रशस्त रूप में संपादित दान, शील तप आदि कर्म सचीर्ण-उत्तम फल देने वाले हैं तथा दुश्चीर्ण-अप्रशस्त पापमय कर्म अशभ-द:खमय फल देने वाले हैं / जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है। जीव उत्पन्न होते हैं-संसारी जीवों का जन्म-मरण है / कल्याण-शुभ कर्म, पाप-अशुभ कर्म फलयुक्त हैं, निष्फल नहीं होते। प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का प्राख्यान-प्रतिपादन करते हैं-यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला प्रात्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर--सर्वोत्तम है, केवल-अद्वितीय है अथवा केवली-सर्वज्ञ द्वारा भाषित है, संशुद्धअत्यन्त शुद्ध, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण--प्रवचन-गुणों में सर्वथा परिपूर्ण है, नैयायिक-न्याय-संगत है प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन-माया आदि शल्य-कांटों का निवारक है, यह सिद्धि-कृतार्थता या सिद्धावस्था प्राप्त करने का मार्ग-उपाय है, मुक्ति---कर्म रहित अवस्था या निर्लोभता का मार्ग-हेतु है, निर्याण-पुनः नहीं लौटाने वाले जन्म-मरण के चक्र में नहीं गिराने वाले गमन का मार्ग है, निर्वाण-सकल संताप-रहित अवस्था प्राप्त करने का पथ है, अवितथसद्भूतार्थ-वास्तविक, अविसन्धि-विच्छेदरहित तथा सब दुःखों को प्रहीण-सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है। इसमें स्थित जीव सिद्धि-सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं अथवा अणिमा आदि महती सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, बुद्ध-ज्ञानी केवल-ज्ञानी होते हैं, मुक्त-भवोपग्राही-जन्म-मरण में लाने वाले कर्माश में रहित हो जाते हैं, परिनिर्वृत होते हैं—कर्मकृत संताप से रहित परम शान्तिमय हो जाते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं / एकार्चा-जिनके एक ही मनुष्यभव धारण करना बाकी रहा है, ऐसे भदन्त-कल्याणान्वित अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के भक्त पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्हीं देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महद्धिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org