Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 10] [उपासकवांगसूत्र वर्णित अपेक्षित प्रसंग को प्रस्तुत स्थान पर ले लिया जाता है। उसी प्रकार विशेषणात्मक वर्णन, विस्तार आदि के लिए 'जाव' शब्द द्वारा संकेत करने का भी जैन आगमों में प्रचलन है / संबंधित वर्णन को दूसरे प्रागमों से, जहां वह आया हो, गृहीत कर लिया जाता है। यहां भगवान् महावीर और सुधर्मा और जंबू के विशेषणात्मक वर्णन 'जाव' शब्द से सूचित हुए हैं। ज्ञातृधर्मकथा, औपपातिक तथा राजप्रश्नीय सूत्र से ये विशेषणमूलक वर्णन यहां आकलित किए गए हैं। जैसा पहले सूचित किया गया है, संभवत: जैन आगमों की कंठस्थ परम्परा की सुविधा के लिए यह शैली स्वीकार की गई हो। प्रानन्द गाथापति 3. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बाणियगामे नामं नयरे होत्था। वण्णओ। तस्स वाणियगामस्स बहिया उत्तर-पुरथिमे दिसी-भाए दूइपलासए नामं चेइए / तत्थ मं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्या / वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहावई परिवसइ-अड्ढे जाव (दित्ते, वित्त विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणे, बहु-धण-जायरूव-रयए, आओगपओग-संपउत्ते, विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणे, बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलगपप्पभूए बहु-जणस्स) अपरिभूए। आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवपिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर विद्यमान थे, वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में ईशान कोण में दूतीपलाश नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक वहां का राजा था। वहां वाणिज्यग्राम में प्रानन्द नामक गाथापति सम्पन्न गृहस्थ रहता था। प्रानन्द धनाढय दीप्त-दीप्तिमान-प्रभावशाली, सम्पन्न, भवन, शयन-अोढने-बिछौने के वस्त्र, प्रासन-बैठने के उपकरण, यान-माल-असबाब ढोने की गाड़ियां एवं वाहन सवारियां आदि विपुल साधन-सामग्री तथा सोना, चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग-प्रयोग-संप्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग और प्रयोग में निरत-नीतिपूर्वक द्रव्य के उपार्जन में संलग्न था। उसके यहां भोजन कर चुकने के बाद भी खाने पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियां, गायें, भैंसें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियां आदि थीं।] लोगों द्वारा अपरिभूतअतिरस्कृत था—इतना रौबीला था कि कोई उसका तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर पाता था। विवेचन इस प्रसंग में गाहावई [गाथापति शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। यह विशेषत: जैन साहित्य में ही प्रयुक्त है / गाहा+बई इन दो शब्दों के मेल से यह बना है। प्राकृत में 'गाहा' आर्या छन्द के लिए भी आता है और घर के अर्थ में भी प्रयुक्त है। इसका एक अर्थ प्रशस्ति भी है / धन, धान्य, समृद्धि, वैभव आदि के कारण बड़ी प्रशस्ति का अधिकारी होने से भी एक सम्पन्न, समृद्ध गृहस्थ के लिए इस शब्द का प्रयोग टीकाकारों ने माना है। पर, गाहा का अधिक संगत अर्थ घर ही प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org